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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४ १२। www.kobatirth.org पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । मनागपि प्रीतियुतेन चक्षुषा यमक्षिसे कैर्न गुणैः स भूष्यते ॥ अर्थः——हे सरस्वति हे मातः जिसमनुष्यमें आपकी कला नहीं अर्थात् जो मनुष्य आपका कृपापात्र नहीं है वह चिरकालतक पढ़ता हुवा भी शास्त्रको नहीं जानता है किन्तु जिसको आप थोड़ा भी स्नेह सहित नेत्र से देख लेतीहो अर्थात् जो मनुष्य थोड़ाभी आपकी कृपाका पात्र वन जाता है वह मनुष्य संसारमें किन २ गुणोंसे विभूषित नहीं होता है ? अर्थात् विनाही प्रयत्नके वह केवल आपकी कृपा से समस्तगुणों का भंडार हो जाता है । भावार्थः — हे मातः आपकी विना कृपाके यदि मनुष्य चाहै कि मैं पढ़ २ कर विद्वान हो जाऊं तथा वास्तविक तलका मुझे ज्ञान हो जावे यह कभी भी नहीं होसक्ता किन्तु जिस मनुष्यपर आपकी थोड़ी भी कृपा रहती है वह मनुष्य विनाही पढ़े विहता आदि अनेकगुणोंको बात की बात में प्राप्त कर लेता है इसलिये आपकी कृपा ही मनुष्योंको कल्याणकी करने वाली है ॥ ८ ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir स सर्ववित्पश्यति वेत्ति चाखिलं नवा भवत्या रहितोऽपि बुध्यते । तदत्र तस्यापि जगत्त्रयप्रभोस्त्वमेव देवि प्रतिपत्तिकारणम् ॥ अर्थः-संसार में जो केवली भगवान समस्तपदार्थों को भलीभांति देखते हैं तथा समस्तपदार्थोंको भलीभांति जानते हैं वे भी आपकी ही कृपासे हे देवि जानते तथा देखते हैं किन्तु आपकी कृपा के बिना न वे जानते हैं और न देखते ही हैं इसलिये हेमातः इससंसारमें तीनोंजगतके प्रभु उन केवलीके ज्ञान तथा दर्शन में भी आपही कारण है ॥ भावार्थः — हे सरस्वति यदि आप न होती तो समस्त जगतके प्रभु केवली भगवान भी समस्त पदार्थों को न तो देखही सक्ते थे और न जान ही सक्ते थे इसलिये केवली भगवान के समस्त पदार्थों के जानने में तथा दर्शन में आपही आसाधारण कारण हैं ॥ ९ ॥ For Private And Personal ० ।।४१२ ।।
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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