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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पअनन्दिपञ्चविंशतिका । दिखे तुमम्मि जिणवर भवोवि मित्तणं गओ एसो एयम्मि ठियस्स जओ जायं तुह दंसणं मज्झ । दृष्टे त्वयि जिनवर भवोऽपि मित्रत्वं गत एप एतस्मिन् स्थितस्य यतः जातं तव दर्शनं मम ।। अर्थः हे प्रभो हे जिनेश आपके दर्शनसे यह जन्म भी मेरा परममित्र बनगया क्योंकि इसजन्ममें रहनेवाले मुझे आपका दर्शन हुआ है। भावार्थ:--संसारमें जितनेभर दुःखोंको उत्पन्न करनेवाले पदार्थ हैं वे किसीके हितकारी मित्र नहीं होते। इसलिये यद्यपि जन्म जीवोंका मित्र नहीं हो सकता क्योंकि वह जीवोंको नानाप्रकारके दुःखोंका देनेवाला है किन्तु हे प्रभो आपके दर्शनसे बह जन्म मित्र ही बनगया क्योंकि अनेक जन्मोंसे आपका दर्शन नहीं मिला है किंतु इसीजन्ममें आपका दर्शन मुझै भाग्यसे मिला है ॥ २८ ॥ दिवे तुमम्मि जिणवर भव्वाणं भूरिभत्तिजुत्ताणं सव्वाओ सिद्धीओ होंति पुरो एकलीलाए । दृष्टे स्वयि जिनवर भब्यानां भूरिभाक्तियुक्तानाम् ___ सर्वाः सिद्धयो भवंति पुर एकळीलया ॥ अर्थ:-हे प्रभो हे भगवन् गाढ़ जो भक्ति उसभक्तिकर सहित जो भव्यजीव हैं उनको आपके दर्शनसे बातकी बातमें समस्तप्रकारकी सिडियोंकी प्राप्ति हो जाती है। भावार्थः-संसारमें उत्तमोत्तम सिद्धियोंकी प्राप्ति यद्यपि अत्यंत कठिन है किंतु हे प्रभो जो मनुष्य आपके गाढ़भक्त हैं अर्थात् आपमें भक्ति तथा श्रद्धा रखते हैं उन मनुष्योंको केवल आपके दर्शनसे ही समस्त का 100.00..........०००००००००००००००००००००.0000000000000000000 ॥४.४॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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