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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kalashsagarsuri Gyanmandir १४०३ ...................................000000000०.०००९ पमनान्दपश्चविंशतिका । रटे त्वयि जिनवर हृदयेन महासुख समुशासितम् सरिमायेनेव सहसा उद्गमिते पूर्णिमाचरे । अर्थः-हे जिनेश हे प्रभो जिसप्रकार चंद्रमाके उदय होने पर समुद्र शीघ्रही उल्लासको प्राप्त होता है उसीप्रकार आपके दर्शनसे भी मेरे हृदयमें अत्यंत प्रसन्नता होती है। भावार्थ:-जिससमय पूर्णिमासीके चंद्रमाको देखकर समुद्र उछलता है उससमय यद्यपि चंद्रमा समुद्रके उछलनेकेलिये प्रेरणा नहीं करता किंतु चंद्रमाके उदय होते ही जिसप्रकार वह खभावसे ही उल्लासको प्राप्त होता है उसीप्रकार हे प्रभो आपको देखकर आपकी प्रेरणासे मेरा मन प्रसन्न नहीं होता किंतु आपके देखनेसे ऐसा अपूर्व आनंद होता है जिससे वह स्वभावसे ही प्रसन्न होजाता है ॥ २६ ॥ दिवे तुमम्मि जिणवर दोहिमि चक्खूहिं तह सुही अहियं हियये जह सहसाहो होहित्ति मणोरहो जातः ॥ इष्टे त्वयि जिनवर द्वाभ्यां चक्षुभ्यो तथा सुखी अधिक हरये यथा सहसार्थों भविष्यति इति मनोरथो जातः ॥ अर्थः-हे प्रभो हे जिनेश आपको देखकर मैं इतना हृदयमें आधिक सुखी हुवा मानो बहुत शीघ्र मेरे प्रयोजन सिद्ध होंवेगें ऐसा मेरा मनोरथ ही सिद्ध हुवा । भावार्थः-मनुष्यकी जो अभिलाषा हुआकरती है यदि उसकी सिद्धि शीघ्र होनेवाली हो तो जिस प्रकार उसमनुष्यके हृदयमें वचनातीत आनंद होता है उसीप्रकार हे प्रभो आपको देखकर मुझे भी वचनातीत आनंद हुआ अर्थात् मैं आपके दर्शनसे अत्यंत सुखी हुआ ॥ २७ ॥ ..........000000000000000000000000000014 .............. ४ . ३ ॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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