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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalashsagarsuri Gyanmandir ॥४०५॥ 00000000000000000000000000000000000000000000000000004 पचनान्दपश्चविंशतिका । प्रकारकी सिद्धियां बातकी बातमें आगै आकर उपस्थित हो जाती हैं ॥ २९ ॥ दिखे तुमम्मि जिणवर सुहगइसंसाहणेकवीयम्मि कंठगयजीवियस्सवि धीरं संपजए परमं ॥ रष्टे त्वयि जिनवर शुभगतिसंसाधनैकबीजे कंठगतजीवितस्थापि धैर्य संपद्यते परमम् ॥ अर्थ:--हे प्रभो हे जिनेन्द्र शुभगतिकी सिद्धिमें एक असाधारण कारण ऐसे आपके दर्शनसे जिसप्राणीके प्राण कंठमें आगये हैं अर्थात् जो तत्काल मरनेवाला है ऐसे उसप्राणीको उत्तमधीरता आजाती है। भावार्थ:-जिसप्रकार किसी जीवपर अधिक कष्ट आकर पड़े और उससमय यदि कोई उसका हितैषी मनुष्य सामने पड़जाये तो उसको एकदम धीरता आजाती है उसीप्रकार हे प्रभो जिसमनुष्यके प्राण सर्वथा कंठमें आपहुंचे हैं अर्थात् जो शीघ्र ही मरनेवाला है उसमनुष्यको यदि आपका दर्शन होजावे तो वह शीघ्रही धीरवीर बनजाता है अर्थात् उसको मरणसे किसीप्रकारका भय नहीं रहता क्योंकि आप जीवोंको शुभगतिकी प्राप्तिमें एक असाधारण कारण है इसलिये वह आपके दर्शनसे समझलेता है कि अब मेरे समस्तदुःख दूरहोगये ॥३०॥ दिखे तुमम्मि जिणवर कमम्मि सिद्धे ण किं पुरा सिद्धं सिद्धियरं को णाणी यहइ ण तुह दंसणं तदा ॥ दृष्टे त्वयि जिनवर क्रमे सिद्धे न किं पुरा सिद्धम्। सिद्धिकरं को ज्ञानी इच्छति न तव दर्शनं तस्मात् ।। अर्थः-हे प्रभो हे जिनेश आपकेदर्शनसे आपके चरणकमलोंकी प्राप्ति होनेपर ऐसी कौनसी वस्तु बाकी रही जो मुझे न मिली हो ? अर्थात् समस्त पदार्थोंकी सिद्धि हुई इसलिये ऐसा कौनसा ज्ञानी है जो 14..+00004..........................................04 ४०५॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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