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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥५२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपश्चविंशतिका । चाहे उनके शरीर में चन्दनका लेपकरे तो भी कुल्हाड़ी और चंदनमें सम होकर मुनिगण क्षीरनीरके समान आत्मा शरीर का संबंध होनेपर भी अपनेमें अपनेसे अपनेको निरंतर भिन्नही देखते हैं ॥ ४४ ॥ शिखरिणी । तृणं वा रत्नं वा रिपुरथ परं मित्रमथवा सुखं वा दुःखं वा पितृबनमदो सौधमथवा । स्तुतिर्वा निन्दा वा मरणमथवा जीवितमथ स्फुटं निर्ग्रन्थानां द्वयमपि समं शान्तमनसाम् ॥ ४५ ॥ अर्थ तथा उन शान्त रस के लोलुपी मुनियोंके तृण तथा रत्न, मित्र और शत्रु, सुख तथा दुःख, श्मसानभूमि और राजमन्दिर, स्तुति तथा निन्दा, मरण और जीवित दोनो समान है ॥ भावार्थ -- जो मुनि परिग्रहकर रहित हैं तथा शान्त स्वरूप है वे तृणसे घृणाभी नहीं करते हैं तथा रत्न को अच्छा भी नहीं समझते हैं और अपने हितके करने वालेको मित्र नहीं समझते हैं तथा अहितके करने वालेको बैरी नहीं समझते हैं तथा सुख होनेपर सुख नहीं मानते हैं दुःख होनेपर दुःख नहीं मानते हैं और इमसान भूमिको वुरी नहीं कहते हैं तथा राजमन्दिरको अच्छा नहीं कहते हैं तथा स्तुति होनेपर संतुष्ट नहीं होते हैं तथा निन्दा होनेपर रुष्ट नहीं होते हैं तथा जीवित मरणको समान मानते हैं ॥ ४५ ॥ वीतरागी इस प्रकारका विचार करते हैं । मालिनी । वयमिह निजयूथभ्रष्टसारङ्गकल्पाः परपरिचयभीताः कापि किंचिच्चरामः । विजनमधिवसामो न व्रजामः प्रमादं सुकृतमनुभवामो यत्र तत्रोपविष्टाः ॥ ४६ ॥ अर्थः -- जिस प्रकार मृग अपने समूहसे जुदा होकर तथा दूसरों से भयभीत होकर जहांतहां विचरता For Private And Personal ॥२५॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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