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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥२६॥ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000 पचनन्दिपश्चविंशतिका । फिरता है तथा एकान्तमें रहता है तथा प्रतिसमय प्रतिवुद्ध रहता है और जहांतहां बैठकर आनन्द भोगता है उसीप्रकार हमारे लियेभी वह कौनसा दिन आवेगा जिसदिन हम अपने कुटुम्बियोंसे जुदे होकर तथा फिर उन से परिचय न होजावे इससे भयभीत होकर हमभी यहां वहां विचरेंगे तथा एकान्तवासमें रहेंगे और प्रमादी न बनेगे, तथा जहां तहां वैठकर अपने आत्मानंदका अनुभव करेंगे. ॥४॥ और भी वीतरागी इसप्रकारकी भावना करते रहते हैं । कति न कति न वारान् भूपतिर्भूरिभूतिः कति न कति न वारानत्र जातोऽस्मि कीटः। नियतमिति न कस्याप्यस्ति सौख्यं न दुःखं जगति तरलरूपे किं मुदा किं शुचा वा ॥४७॥ अर्थः--इस संसारमें कितनी २ वारतो हम बडी २ संपत्तिके धारी राजा न होगये तथा कितनी २ वार इसी संसार में हम क्षुद्र कीड़े न होचुके इसलिये यही मालूम होता है कि चचलरूप इस संसारमें किसीका सुख तथा दुःख निश्चित नहीं है अतः सुख और दुःखके होने पर हर्ष और विषाद कदापि नहीं करना चाहिये ४७ पृथ्वी । प्रतिक्षणमिदं हदि स्थितमातिप्रशान्तात्मनो मुनेर्भवति संवरः परमशुद्धहेतुर्भुवम् । रजःखलु पुरातनं गलति नो नवं ढोकते ततोऽपि निकटं भवेदमृतधाम दुःखोज्झितम् ॥ ४८ ॥ अर्थ-परमशांत मुद्राके धारी मुनियोंके इसप्रकार उपर्युक्त भावना करनेसे परम शुद्धिका करनेवाला संवर होता है तथा उसके होते सन्ते जो कुछ प्राचीन कर्म आत्माके साथ लगे रहते हैं तब गलजाते हैं तथा नबीन कौंका आगमन भी बंद होजाता है तथा उन मुनियोंकोलिये समस्तप्रकारके दुःखोंकररहित मुक्तिभी सर्वथा समीप रहजाती है॥४८॥ का॥२६॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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