SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥२४॥ पचनन्दिपश्चविंशतिका । लिये जटा रखनेसे हिंसा होती है तथा मुण्डन करानेकेलिये वे दूसरेसे द्रव्यभी नहीं मांग सक्ते क्योंकि उनकी अयाचक वृत्तिका परिहार होता है इसलिये वैराग्यकी अतिशय वृद्धिकेलिये ही मुनिगण अपने हार्थोसे केशोंको उपाटते हैं, इसमें अन्य कोई मानादि कारण नहीं है ।। ४२ ॥ अब आचार्य स्थितिभोजन नामक मूलगुणको बताते हैं। यावन्मे स्थिातभोजनेऽस्ति दृढता पाण्योश्च संयेजने भुञ्जे तावदहरहाम्यथ विधावेषा प्रतिज्ञा यतेः । कायेऽप्यस्पृहचेतसोऽन्त्यविधिषु प्रोल्लासिनःसन्मतेनह्येतेन दिविस्थितिर्न नरके सम्पद्यते तदिना ४३ अर्थः-जो मुनिगण अपने शरीरमेंभी ममत्वकर रहित है तथा समाधिमरण करनेमें उत्साही है तथा श्रेष्ट ज्ञानके धारक हैं उनकी विधीमें यह कड़ी प्रतिज्ञा रहती है कि जब तक हमारी खड़े होकर अहार लेनेमें तथा दोनों हार्थोको जोड़नेमें शक्ति मौजूद है तब तक हम भोजन करेंगे नहीं तो कदापि न करेंगे जिससे उनको स्वर्गकी प्राप्ति होती है तथा उनको नरक नहीं जाना पड़ता किन्तु जो इसप्रतिज्ञासे रहित है उनको अवश्य नरक जाना पड़ता है ॥ ४३ ॥ और भी आचार्य मुनिधर्मका वर्णन करते हैं। एकस्यापि ममत्वमात्मवपुषःस्यात्संसृतेःकारणं कोवाह्यर्थकथाप्रथीयसि तथाप्याराध्यमानेऽपि च । तदासां हरिचन्द्रनेपि च समःसंश्लिष्टतोऽप्यङ्गतो भिन्नं खं स्वयमेकमात्मनि धृतं यास्यत्यजस्रं मुनिः४४ अर्थ-विस्तीर्णतपके आराधन करनेपरभी यदि एक अपने शरीरमें भी “यहमेरा है" ऐसा ममत्व हो जावे तो वह ममत्वही संसारमें परिभ्रमणका कारण हो जाता है तब यदि शरीरसे अतिरिक्त धनधान्यमें ममता की जावेगी तो वह ममता क्या न करेगी ? ऐसा जानकर तथा चाहै कोई उनके शरीरमें कुल्हाड़ी मारे ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० ॥२४॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy