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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ARRU 1.000000000000000000000०००००००००००००००००००..." Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपश्चविंशतिका काले दुःखमसैज्ञके जिनपतेर्धर्मे मते क्षीणता तुच्छे सामयिके जने वहुतरे मिथ्यान्धकारे सति ।। चैत्ये चैत्यगृहे च भक्तिसहितो यः सोऽपि नो दृश्यते यस्तत्कारयते यथाविधिपुनर्भव्यः स बन्द्यः सताम्॥ अर्थः-इस दुःखमनामकालमें जिनेन्द्रभगवानके धर्मके क्षीण होनेसे तथा आत्माके ध्यानकरनेवाले मुनिजनोंकी बिरलायतसे और गाढ़ मिथ्यात्वरूपी अंधकारके फैलजानेसे जो जिनेन्द्रभगवानकी प्रतिमा तथा जिनमन्दिरोंमें भक्तिसहित तथा उनको भक्तिपूर्वक बनवातेथे वे मनुष्य इससमय देखने में नहीं आते हैं किन्तु जो भव्यजीव इससमय भी विधिके अनुसार उन जिनमन्दिर आदिकार्योको करता है वह सज्जनोंका वंद्यही | है अर्थात समस्तउत्तमपुरुष उसकी निर्मलहृदयसे स्तुति करते हैं ॥ २१ ॥ विम्बादलोन्नतियवोन्नतिमेव भक्त्या ये कारयन्ति जिनसा जिनाकृर्ति वा ॥ पुण्यं तदीयमिह वागपि नैव शक्ता स्तोतुं परस्य किमु कारायितुईयस्य ॥२२॥ अर्थः-आचार्य कहते हैं जो भव्यजीव इससंसारमें भक्तिपूर्वक यदि छोटेसे छोटे बिम्बा (कुन्दुक) पचेके समान जिनमन्दिर तथा यव (जौ) के समान जिनप्रतिमाको भी बनावे तो उसमनुष्यको भी इतने पुण्यकी प्राप्ति होती है कि जिसको औरकी तो क्या बात ? साक्षात् सरस्वती भी वर्णन नहीं करसक्ती किन्तु जो मनुष्य ऊंचे २ जिनमन्दिर तथा जिनप्रतिमाओंका बनानेवाला है उसको तो फिर अगम्यपुण्यकी ही प्राप्ति होती है ॥ भावार्थ:-बिम्बाके पत्रकी उचाई बहुत थोड़ी होती है और यवकी भी उचाई बहुत थोड़ी होती है किन्तु आचार्य इसबातका उपदेशदेते हैं कि इस कलिकाल पंचमकालमें यदि कोई मनुष्य बिम्बाके पत्तेकी उचाईके समान जिनमन्दिरको तथा यवकी उचाईके समान ऊंची जिनप्रतिमाको भी बनाये तो उसके पुण्यकी स्तुतिकरनेकेलिये साक्षात् सरस्वती भी हार मानती है किन्तु जो मनुष्य ऊंचे २ जिनमन्दिरोंका बनानेवाला का॥२२७॥ ++00000000000000.00000............... For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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