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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४२२६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । तैरत्रोपकृतं न केषुचिदपि प्रायो न सम्भाव्यते तत्कार्याणि पुनः सदैव विदधदाता परं दृश्यते ॥१९॥ अर्थः--- चिन्तामणिरत्न कल्पवृक्ष कामधेनु पारसपत्थर आदिक पदार्थ संसार में परोपकारी है यह वात आजतक सुनीही है किन्तु किसीने अभीतक ये साक्षात् उपकार करते हुवे देखे नहीं हैं तथा उन्होंने किसी में उपकार किया है इसबात की भी संभावना नहीं कीजाती परन्तु चिन्तामणिरत्न आदिके कार्यको करनेवाला दाता ( मनोवांछित दान देनेवाला ) अवश्य देखनेमें आता है इसलिये चिंतामणिरत्न कल्पवृक्ष आदि उत्कृष्ट पदार्थ दाताही है किन्तु इनसे भिन्न चिंतामणि आदिक कोई पदार्थ नहीं हैं ॥ १९ ॥ यत्र श्रावकलोक एव वसति स्यात्तत्र चैत्यालयो यस्मिन्सोऽस्ति च तत्र सन्ति यतयो धर्मश्च तैर्वर्तते । धर्मे सत्यघसंचयो विघटते स्वर्गापवर्गाश्रयं सौख्यं भावि नृणां ततो गुणवतां स्युः श्रावकाः सम्मताः ॥२०॥ अर्थः- जिस नगर तथा देशमें श्रावकलोग रहते हैं वहांपर जिनमंदिर होता है और जहांपर जिनमंदिर होता है वहां पर यतीश्वर निवास करते हैं और जहांपर यतीश्वरोंका निवास होता है वहां पर धर्मकी प्रवृत्ति रहती है तथा जहां पर धर्म की प्रवृत्ति रहती है वहांपर अनादिकाल से संचय किये हुए प्राणियों के पापों का नाश होता है तथा भाविकालमें स्वर्ग तथा मोक्षके सुखोंकी प्राप्ति होती है इसलिये गुणवान मनुष्यों को धर्मात्मा श्रावकों का अवश्य आदर करना चाहिये ॥ भावार्थः —— धर्मात्मा श्रावकही अपने घनसे जिनमन्दिरको बनवाते हैं तथा जिनमन्दिरोंमें यतीश्वर निवास 'करते हैं और यतीश्वरोंसे धर्म की प्रवृत्ति होती है तथा धर्मसे प्रापका नाश तथा उचम स्वर्ग मोक्ष आदिके सुखोंकी प्राप्ति होती है इत्यादि ये समस्त बातें श्रावकों के द्वाराही होती हैं यदि श्रावक न होवे तो ये बातें कदापि नहीं हो सक्ती इसलिये ऐसे उत्तमश्श्रावकों का सव्यजीवोंकों अवश्य आदर सत्कार करना चाहिये ॥ २० ॥ For Private And Personal ||॥२-२६॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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