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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 40000०.१०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००." www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपश्चशितिका । है तथा ऊंची २ जिनप्रतिमाओंका निर्माण करनेवाला है उसका तो पुण्य फिर अगम्यही समझना चाहिये इसलिये भव्यजीवोंको चाहिये कि वे ऊंची २ जिनप्रतिमाओंका तथा जिनमन्दिरोंका उत्साहपूर्वक इसपंचम कालमें अवश्य निर्माण करावें ॥ २२ ॥ शालविक्रीड़ित । यात्राभिःस्नपनैर्महोत्सवशतैः पूजाभिरुल्लोचकै नैवेद्यैर्वलिभिर्ध्वजैश्च कलशैस्तौर्यत्रिकैर्जागरैः॥ घण्टाचामरदर्पणादिभिरपि प्रस्तार्य शोभां परां भव्यःपुण्यमुपार्जयन्ति सततं सत्यत्र चैत्यालय॥२३॥ अर्थ-इससंसारमें चैत्यालयके होनेपर भव्यजीव यात्रासे कलशाभिषेकासे तथा और सैकड़े बड़े उत्सवों से और पूजा तथा चांदनियोंसे और नैवेद्यस वलिसे तथा ध्वजाओंकेआरोपणसे कलशारोपणसे और अत्यंत शब्दों के करनेवाले बाजोंसे तथा घंटा चमर दर्पण आदिकसे उनचैत्यालयोंकी उत्कृष्टशोभाको बढ़ाकर पुण्यका संचय करलेते हैं इसलिये भव्यजीवोंको चैत्यालयका निर्माण अवश्यही कराना चाहिये ॥२३॥ ते चाणुव्रतधारिणोऽपि नियतं यान्त्येव देवालयं तिष्ठन्त्येव महर्द्धिकामरपदं तत्रैव लब्ध्वा चिरम् । अत्रागत्य पुनः कुलेऽति महति प्राप्य प्रकृष्टं शुभान्मानुष्यं च विरागतां च सकलत्यागं च मुक्तास्ततः॥ . अर्थः-जो षटआवश्यक पूर्वक अणुव्रतके धारणकरनेवाले श्रावकहें वे नियमसे स्वर्गको जाते हैं तथा वहां | पर महानऋद्धिके धारी देवहोकर चिरकालतक निवास करते हैं और पीछे वे इसमर्त्यलोकमें आकर शुभकर्मके योग से अत्यंत उत्तमकुलमें मनुष्यजन्मको पाकर तथा वैराग्यको धारणकर और समस्त वाह्य तथा अभ्यंतर परिग्रहका नाशकर सीधे सिहालयको पधारते हैं तथा वहांपर अनन्तसुखके भोगनेवाले होते हैं इसप्रकार जब अणुव्रत आदिभी all मुक्तिके कारण हैं तो भव्योंको चाहिये कि वे घट आवश्यक पूर्वक अणुव्रतोंको प्रयत्नसे धारण करै ॥ २४ ॥ R२२८॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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