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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १९४ा 2.4. ++.000000000000000000.004444446664004196446666 पचनन्दिपश्चविंशतिका । श्रावकाचारः। अनुष्टुप् । स्माद्यो जिनो नृपःश्रेयान् व्रतदानादिपुरुषो। एतदन्योऽन्यसंवन्धे धर्मस्थितिरभूदिह ॥१॥ अर्थः-आदि जिनेन्द्र श्रीऋषभनाथ और श्रेयांस नामकराजा ये दोनों महात्मा व्रततीर्थ तथा बर्म तीर्थके प्रवर्तानेमें आदि पुरुष है और इसभरतक्षेत्रमें इनदोनोंके संबंधसे ही धर्मकी स्थिति हुई है। भावार्थः-चतुर्थकालकी आदिमें जिससमय कर्मभूमिकी प्रवृत्ति थी उससमय सवसे पहिले ब्रततीर्थकी प्रवृत्ति श्री आदीश्वर भगवानने की है अर्थात् प्रथमही प्रथम इन्होंने ही तप आदिको धारण किया है तथा उसीकालमें दानतीर्थकी प्रवृत्ति श्री श्रेयांस राजाने की है अर्थात् सवसे पहिले श्रीआदीश्वरभगवानको श्रेयांस राजानेही दान दिया है इसलिये ये दोनों महात्मा ब्रततीर्थ तथा दानतीर्थके प्रवर्तीनेमें भादि पुरुष है और इनदोनोंके संबंधसेही इसभरतक्षेत्रमें धर्मकी स्थिति हुई है॥१॥ अब आचार्य धर्मके स्वरूपका वर्णन करते हैं। सम्यग्दृग्बोधचारित्रत्रितयं धर्म उच्यते । मुक्तः पन्था स एव स्यात्प्रमाणपरिनिष्ठितः ॥ २॥ अर्थः--सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र इनतीनोंके समुदायको धर्म कहते हैं तथा प्रमाणसे निश्चित यहधर्मही मोक्षका मार्ग है ॥२॥ रत्नत्रयात्मके मार्गे संचरन्ति न ये जनाः । ०००००००००००००0000000000000000०००००००००००० ०००० For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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