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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 2+000000000000...................००००.4444400.000000011 ____www.kobatirth.org पचनन्दिपश्चविंशतिका । तेषां मोक्षपदं दूरं भवेदीर्घतरोभवः ॥३॥ अर्थ:-जो मनुष्य इस सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र स्वरूपमोक्षमार्गमें गमन नहीं करते है उनको कदापि मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती और उनकेलिये संसार दीर्घतर होजाता है अर्थात उनका संसार कभी भी नहीं छुटता ॥३॥ सम्पूर्णदेशभेदाभ्यां सच धोंदिधा भवेत् । आद्य भेदे च निर्ग्रन्था दितीये गृहिणः स्थिताः ॥ ४ ॥ अर्थ:-और वह रत्नत्रयात्मकधर्म सर्वदेश तथा एकदेशके भेदसे दो प्रकारका है उसमें सर्वदेश धर्मका तो निर्ग्रन्थ मुनि पालन करते हैं और एकदेशधर्मका गृहस्थ ( श्रावक ) पालन करते हैं ॥ ४॥ सम्प्रत्यपि प्रवर्तेत धर्मस्तेनैव वर्त्मना। तेनैतेऽपि च गण्यन्ते गृहस्था धर्महेतवः ॥ ५ ॥ अर्थः--इसकलिकालमें मी उसधर्मकी उसीमार्गसे अर्थात् सर्वदेश तथा एकदेशमार्गसे ही प्रवृत्ति है इस लिये उसधर्मके कारण, गृहस्थभी गिनेजाते हैं ॥ ५ ॥ सम्प्रत्यत्र कलौ काले जिनगेहे मुनिस्थितिः। धर्मश्च दानमित्यषां श्रावका मूलकारणम् ॥ ६॥ अर्थः--और इसकालमें श्रावकगण बड़े २ जिनमन्दिर वनवाते हैं तथा आहार देकर मुनियोंके शरीर की स्थिति करते हैं तथा सर्वदेश और एकदेशरूप धर्मकी प्रवृत्ति करते हैं और दान देते हैं इसलिये इनसोके मूल कारण श्रावक ही है अतः श्रावकधर्मभी अत्यन्त उत्कृष्ट है ।। १९९९९.00040400000000000000.............14640..." १९५४ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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