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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsur Gyanmandir M१९३ पचनान्दपञ्चविंशतिका । येषां तत्सदनं तदेव शयनं तत्सम्पदस्तत्सुखं तवृत्तिस्तदपि प्रियं तदखिलश्रेष्ठार्थसंसाधकम् ॥ अर्थः-जिसके साथ किसीप्रकारके कर्मकासंबंध नहीं है तथा जो "अहम्" इसशब्दसे कहाजाता है ऐसे उत्कृष्ट ज्योतिःवरूपात्मतखको जिनमुनीश्वरोंने जानलिया है तथा सुनलिया है और जिन योगीश्वरोंके वह निज तत्वही एक रहनेका स्थान है और वही सोनेका स्थान है तथा वही श्रेष्ठ संपदा है और वही सुख है तथा वही वृत्ति है और वही प्रिय है तथा वही निजतल जिनमुनियोंको मनोवांछितपदार्थोंका सिहकरनेवाला है वे यतीश्वर मुझे शान्ति प्रदान करें ॥ ८॥ पापारिक्षयकारि दातृ नृपतिवर्गापवर्गश्रियां श्रीमत्पङ्कजनन्दिभिर्विरचितं चिचेतनानन्दिभिः॥ भक्त्यायोयतिभावनाष्टकमिदं भव्यस्त्रिसन्ध्यं पठेत् किंकि सिध्यति वाञ्छितंन भुवने तस्यात्र पुण्यात्मनः अर्थः--जो यतिभावनाष्टक समस्तपापरूपीवैरियोंकानाशकरनेवाला है और राजलक्ष्मी तथा स्वर्गमोक्ष की लक्ष्मीका देनेवाला है तथा जिसकी रचना चैतन्यस्वरूपतलमें आनंदमाननेवाले श्रीपद्मनन्दिमुनीने की है ऐसे यतिभावनाष्टकको जोभव्यजीव भाक्तपूर्वक तीनोंकाल पढ़ते हैं उनभाग्यशाली भव्यजीवोंको संसारमें किस २ इष्टपदार्थकी प्राप्ति नहीं होती ? अर्थात सर्वइष्टपदार्थ उनको मुलभ रीतिसे मिलजाते है ॥९॥ इसप्रकार इसपद्मनन्दिपश्चविंशतिकामें यतिभावनाष्टक मामक पञ्चम अधिकार समाप्तहुआ ।। For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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