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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ॥१९॥ 10000000000000000000000000000000०००००००००००००००००००००० Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपञ्चविंशतिका । वैराग्यको पाकर, जोपुरुष तप करता है वह अधिकप्रतिष्ठित समझाजाता है। किन्तु जो ऐसा होकर ध्यान भी करता है वह और भी अत्यंत प्रतिष्ठित समझाजाता है इसलिये भव्यजीवोंको उपर्युक्त सामिग्रीके मिलनेपर ध्यान अवश्य करना चाहिये ॥ ५ ॥ शार्दल विक्रीडित । ग्रीष्मे भूधरमस्तकाश्रितशिलां मूलं तरोः प्रावृषि प्रोद्भते शिशिरे चतुष्पथपदं प्राप्ताः स्थितिं कुर्वते ॥ ये तेषा यमिनां यथोक्ततपसां ध्यानप्रशान्तात्मनां मार्गे सञ्चरतो मम प्रशमिनः कालः कदा यास्यति ॥ अर्थः-जो योगीश्वर ग्रीष्मऋतुमें पहाड़ोंके अग्रभागमें स्थितशिलाके ऊपर ध्यानरसमें लीनहोकर रहते हैं तथा वर्षाकालमें वृक्षोंके मूलमें बैठकर ध्यानकरते हैं और शरदऋतुमें चौड़े मैदानमें बैठकर ध्यानलगाते हैं उन शास्त्र के अनुसारतपकेधारी तथा ध्यानसे जिनकी आत्मा शांत होगई हैं ऐसे योगीश्वरोंके मार्गमें गमन करनेकेलिये मुझे भी कब वह समय मिलेगा ॥६॥ भेदज्ञानविशेषसंहृतमनोवृत्तिः समाधिः परो जायेताद्भुतधाम धन्यशमिनां केषांचिदवाचलः ॥ वजे मूर्ध्नि पतत्यपि त्रिभुवने वहिप्रदीप्तेऽपि वा येषां नो विकृतिर्मनागपि भवेत्पाणेषु नश्यत्स्वपि ॥ अर्थः-और स्वपरके भेदज्ञानसे जिस समाधिमें मनकी वृत्ति संकुचित है और जो आश्चर्यकारी है तथा उत्कृष्ट और अचल है ऐसी वह समाधि उन धन्य तथा शाम्यभावके धारक मुनियों के होती है जिस समाधिक होनेपर मस्तक पर वज्रगिरनेपर भी तथा तीनोंलोकके जलनेपर भी और निजप्राणोके नष्ट होनेपर भी जिन मुनियोंके मनको किसी प्रकारका विकार नहीं होता ॥ ७ ॥ १९२॥ अन्तस्तत्वमुपाधिवर्जितमहं व्यापारवाच्यं परं ज्योतिर्यः कलितं श्रुतं च यतिभिस्ते सन्तु नः शान्तये॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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