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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 000000000000000000000000००००००००००००००००००0000000000000 पबनन्दिपश्चविंशतिका । शान्तहोकर रहूंगा तथा मृगोंका समूह मुझै काष्टपाषाणकी मूर्तिजानकर आश्रर्यसे देखेगा उसीसमय मैं पुण्यवान हूं ऐसी ज्ञानी सदा भावना करता रहता है ॥३॥ वासः शून्यठे कचिन्निवसनं नित्यं ककुम्मण्डलं सन्तोषो धनमुन्नतं प्रियतमा क्षान्तिस्तपोभोजनम् । मैत्री सर्वशरीभिः सह सदा तत्वैकचिन्तासुखं चेदास्ते न किमस्ति मे शमवतः कार्य न किञ्चित्परः॥ अर्थः--यदि किसी थन्यमठ में मेरा निवासस्थान है तथा अविनाशीदिशाओंका समूह वस्त्र है और सन्तोष धन है तथा क्षमारूपी स्त्री है और तपरूपी भोजन है तथा समस्तप्राणियों के साथ मित्रता है और आत्मस्वरूपका चितवन है तो मेरे सर्वही वस्तु मोजूद है फिर मुझे दुसरीवस्तुओंसे क्या प्रयोजन है ऐसा योगीश्वर सदा विचार करते रहते हैं ॥ ४ ॥ लब्ध्वा जन्म कुले शुचौ वरवपुबुद्ध्वा श्रुतं पुण्यतो वैराग्यञ्च करोति यःशुचितया लोके स एकः कृती। तेनैवोझितगौरवेण यदि वा ध्यानाभृतं पीयते प्रासादे कलशस्तदा मणिमयो ईमे समारोपितः ॥५॥ अर्थः-जो मनुष्य इससंसारमें उत्तमकुलमें जन्म पाकर तथा नीरोग और सुन्दर शरीर को प्राप्तकर और शास्त्र को जानकर वैराग्यको प्राप्त होकर पवित्र तपको करता है वह मनुष्य संसारभरमें एकही पुण्यवान समझा जाता है । और वहीतपकरनेवालापुरुष यदि मदरहित होकर ध्यानामृत का आस्वादन करै तो समझना चाहिये कि उस मनुष्य ने सुवर्णमयघरके ऊपर मणिमय कलशकी स्थापना की। भावार्थ:-जिसप्रकार संसारमें कोई मनुष्य सुवर्णमईमकान बनवावे तो वह अधिक प्रतिष्ठित समझा जाता है और यदि वही पुरुष उसके ऊपर मणिमईकलश चढ़ावे तो वह और भी अत्यंत प्रतिष्ठित समझाजाता है उसीप्रकार उत्तमकुलमें जन्मपाकर, तथा नीरोग, और सुन्दर शरीरको प्राप्तहोकर और शास्त्रको जानकर तथा 2.0000000000000000०००००००००००००००००.........000000000000 ॥१९ ॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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