SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १२२॥ 2000०००००००००००००००००००० +4++++++000000000000००००००००००००००००००००000000000001 पचनन्दिपञ्चविंशतिका । भावार्थ:-कहींपर यदि थोड़ासाभी भोजन किसी पुरुषहारा डाला हुवा देखलेवे तो कौवा ऊंचेशब्द से और दूसरे बहुतसे कौवोंको बुलाकर भोजन करता है किन्तु लोभी योग्यधन पाकर भी नतो स्वयं खाता है न दूसरे को खवाता है और न उस धनको दानही व्यय करता है इसलिये लोभी मनुष्यकी अपेक्षा कौवाही उत्तम है तथा उसलोभीपुरुषका होना न होना संसारमें समान है इसलिये जो मनुष्य अपने जीवनको सार्थक बनाना चाहता है उसको अवश्य उत्तम आदि पात्रोंमें दान देना चाहिये ॥ ४६॥ औदार्ययुक्तजनहस्तपरम्पराप्तव्यावर्तनप्रसृतखेदभरातिखिन्नाः । अर्था गताः कृपणगेहमनन्तसौख्यपूर्णा इवानिशमवाघमति स्वपन्ति ॥ ४७॥ अर्थः-आचार्य कहते हैं कि उदारतासहित जो मनुष्य उनके हाथोंसे पैदाहुवा जो भ्रमण उससे उत्पन्न हुवा जो अत्यंतखेद उससे खिन्न होकर समस्तधन, कृपणके घर चले गये हैं तथा वहींपर वे बाधारहित आनन्दकेसाथ सोते हैं ऐसा मालूम होता है। भावार्थ:--यहांपर उत्प्रेक्षालंकार है इसलिये ग्रन्थकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि यह स्वाभाविक बात है कि | जिसको जहांपर दुःख होता है वह उसस्थानको छोड़कर दूसरे स्थानमें चलाजाता है उसीप्रकार धनने भी यह सोचा कि उदारमनुष्यके घरमें रहनेसे हमको दान आदिकार्यों में जहांतहां घूमना पड़ता है तथा व्यर्थके घूमनेमें पीडा भोगनी पड़ती है इसलिये वह कृपणके घरमें चला गया तथा वहांपर न घूमनेके कारण वह मानन्दसे एक जगहपर ही रहनेलगा सारार्थ उदारका धन तो दानआदिकार्यों में खर्च होता है और कृपणका एक जगहपर रक्खा ही रहता है ॥४७॥ ० ०००००००००००००००००००० Hok१३२॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy