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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra HERRI www.kobatirth.org पद्मनन्दिप विंशतिका । ॥ अब आचार्य पात्रोंके भेदों का वर्णन करते हैं ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir उत्कृष्टपात्रमनगारमणुव्रताढ्यं मध्यं व्रतेनरहितं सुदृशं जघन्यम् । निर्दर्शनं व्रतनिकाययुतं कुपात्रं युग्मोज्झितं नरमपात्रमिदञ्च विद्धिं ॥४८॥ अर्थ ः— उत्तमपात्र तो महाव्रती ( मुनि) हैं तथा अणुव्रती ( श्रावक ) मध्यमपात्र है और व्रतरहित सम्यग्दृष्टि जघन्यपात्र है तथा व्रतसहित मिथ्यादृष्टि कुपात्र है तथा अव्रती मिध्यादृष्टि अपात्र है ऐसा जानना चाहिये । तेभ्यः प्रदत्तमिह दानफलं जनानामेतद्विशेषणविशिष्टमदुष्टभावात् । अन्यादृशेऽथ हृदये तदपि स्वभावादुच्चावचं भवति किं वहुभिर्वचोभिः ॥४९॥ अर्थः-निर्मलभावसे उत्तम आदि पात्रोंकेलिये दिया हुवा दान मनुष्यों को उत्तम आदि फलका देनेवाला होता है तथा जो दान मायाचार अथवा दुष्टपरिणामोंसे दियाजाता है वह भी नीचेऊंचे फलका स्वभावसे देनेवाला होता है इसलिये आचार्य कहते हैं इसविषयमें हम विशेष क्या कहें दान अवश्य फलका देनेवाला होता है । भावार्थः — उत्तमपात्रको निर्मलभावसे दियाहुवा दान सम्यग्दृष्टिको तो स्वर्गमोक्ष आदि उत्तम फलका देनेवाला है तथा वही दान मिथ्यादृष्टिको भोगभूमिके सुखको देनेवाला है तथा मध्यमपात्रमें दिया हुवा दान सम्यग्दृष्टिको तो स्वर्गफलका देनेवाला है और मिथ्यादृष्टिको मध्यमभोगभूमिके सुखका देनेवाला है तथा जघन्यपात्र में दिया हुवा दान सम्यग्दृष्टिको तो स्वर्गफलका देनेवाला है और मिध्यादृष्टिको जघन्यभोगभूमियों के सुखका देनेवाला है इसप्रकार तो पात्रदानका फल है तथा कुपात्रमें दिया हुवा दान कुभोगभुमिके फलका देनेवाला है और अपात्रमें दियाहुआ दान व्यर्थ जाता है अथवा दुर्गति के फलका देनेवाला है तथा द्रुष्ट परिणामों For Private And Personal |॥१३३॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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