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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५१३१।। www.kobatirth.org पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । और भी आचार्य उपदेश देते हैं । सौभाग्यशौर्यसुखरूपविवेकिताद्या विद्यावपुर्धनगृहाणि कुले च जन्म । सम्पद्यतेऽखिलमिदं किल पात्रदानात्तस्मात्किमत्र सततं क्रियते न यत्नः ॥ ४४ ॥ अर्थः- सौभाग्य शूरता सुख विवेक आदिक तथा विद्या शरीर धन घर और उत्तमकुलमें जन्म ये सब बातें उत्तमादिपात्रदानसे ही होती है इसलिये भव्यजीवोंको सदा पात्रदानमें ही प्रयत्न करना चाहिये ॥ ४४ ॥ न्यासश्च सद्मच करग्रहणञ्च सूनोरर्थेन तावदिह कारयितव्यमास्ते । धर्माय दानमधिकाग्रतया करिष्ये सचिंतयन्नपि गृही मृतिमेति मूढः ॥ ४५ ॥ अर्थः-- मुझे धन जमीनमें गाड़ना है तथा घनसे मुझे मकान बनवाना है और पुत्रका विवाह करना है इतने काम करने पर यदि अधिकधन होगा तो धर्मकेलिये दान करूंगा ऐसा विचार करताही करता मूर्ख प्राणी अचानकही मरजाता है तथा कुछभी नहीं करने पाता इसलिये मनुष्यको धनमिलनेपर सबसे पहिले दान करना चाहिये तथा दानसे अतिरिक्त विचार कदापि नहीं करना चाहिये ॥ ४५ ॥ अब आचार्य कृपणकी निन्दा करते हैं । किं जीवितेन कृपणस्य नरस्य लोके निर्भोगदानधनबंधनबद्धमूर्तेः । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तस्मादरं वलिभुगुन्नतभूरिवाग्भिर्व्याहूत काककुल एव वलिं स भुङ्क्ते ॥ ४६ ॥ अर्थः- जिस लोभीपुरुषकी मूर्ति भोग तथा दानरहित धनरूपी बंधनसे बंधी हुई है उसकृपण पुरुषका इसलोक में जीना सर्वथा व्यर्थ है क्योंकि उसपुरुषकी अपेक्षा वह काकही अच्छा है जो कि ऊंचे शब्दसे और दूसरे बहुतसे काकों को बुलाकर मिलकर भोजन करता है । For Private And Personal ॥ १३१ ॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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