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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥ ११९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । गृहस्थोंको उत्तम आदि पात्रोंको अवश्य दान देना चाहिये जिससे मुनियोंके आगमनसे उनके घर पवित्र बने रहैं तथा उनका गृहस्थपना भी कार्यकारी गिना जावे ॥ १७ ॥ ॥ अब आचार्य इसबातको दिखाते हैं कि दानके बिना संपदा किसी कामकी नहीं ॥ देवः स किं भवति यत्र विकारभावो धर्मः स किं न करुणाङ्गिषु यत्र मुख्याः । तत्किं तपो गुरुरथास्ति न यस्य बोधः सा किं विभूतिरिह यत्र न पात्रदानम् ॥ १८ ॥ अर्थः- वह देव कैसा ? जिसके स्त्री आदिको देखकर विकार है तथा वह धर्म किसकामका ? जिसमें दया मुख्य नहीं गिनी गई है। जिससे आत्मा आदिका ज्ञान नहीं होता वह तप तथा वह गुरु किसकामका ? तथा वह संपदा भी किसकामकी ? जिसके होते सन्ते उत्तम आदि पात्रोंको दान न दिया जावे ॥ १८॥ ॥ आचार्य दानव्रतादिसे पैदा हुए धर्मकी महिमाको दिखाते हैं | किं ते गुणाः किमिह तत्सुखमस्तिलोके सा किं विभूतिरथ या न वशं प्रयाति ॥ दानत्रतादिजनितो यदि मानवस्य धर्मो जगत्त्रयवशीकरणैकमन्त्रः ॥ १९ ॥ अर्थः-- जिस मनुष्य के पास तीनोंजगतको वशकरनेमें मंत्रस्वरूप तथा दानव्रत आदिसे उत्पन्न हुआ धर्म मौजूद है उस मनुष्य के उत्तमोत्तमगुण तथा उत्तमोत्तम सुख और उत्तमोत्तम ऐश्वर्य सब अपने आप आकर वश हो जाते हैं इसलिये उत्तमोत्तमगुणके अभिलाषियों को दानव्रत आदिको अवश्य करना चाहिये ॥ १९ ॥ सत्पात्रदानजनितोन्नतपुण्यराशिरेकत्र वा परजने नरनाथलक्ष्मीः ॥ आद्यात्परस्तदपि दुर्गत एव यस्मादागामिकालफलदायि न तस्य किञ्चित् ॥ २० ॥ अर्थः — एक मनुष्य तो उत्तमपात्र दानसे पैदा हुए श्रेष्ठ पुण्यका संचय करता है और दूसरा राज्यलक्ष्मी For Private And Personal ॥ ११९॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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