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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir $$$ ॥१२॥ ܐ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पअनन्दिपञ्चविंशतिका । का अच्छी तरह भोग करता है परन्तु उनदोनोंमें दूसरा राज्यलक्ष्मीका भोगकरनेवाला ही पुरुष दरिद्री है क्योंकि आगामिकालमें उसको किसीप्रकारकी संपत्ति आदिका फल नहीं मिल सक्ता किन्तु पात्रदान करनेवाले को तो आगामिकालमें उत्तम संपदारूपी फलोंकी प्राप्ति होती है इसलिये भव्यजीवोंको खूब दान देकर खूब ही पुण्यका संचय करना चाहिये ॥ २० ॥ दानाय यस्य न धनं न वपुर्बताय नैवं श्रुतं च परमोपशमाय नित्यम् ।। तजन्म केवलमलं मरणाय भूरि संसारदुःखमृतिजातिनिवन्धनाय ।। २१ ।। अर्थः-जिस मनुष्यका धन तो दानके लिये नहीं है तथा शरीर व्रतके लिये नहीं है और उत्तम शांति के पैदा करने के लिये शास्त्र नहीं है उस मनुष्यका जन्म संसारके जन्म मरण आदि अनेक दुःखोंके भोगने का कारण जो मरण उसके लिये है । भावार्थ:-धन पाकर उत्तमपात्र आदिके लिये दान देना चाहिये तथा उत्तम शरीर पाकर अच्छी तरह व्रत उपवास आदि करना चाहिये तथा शास्त्रका अभ्यासकर क्रोधादि कषायोंका उपशम करना चाहिये किंतु जो मनुष्य ऐसा नहीं करता है उसको केवल नानाप्रकार की खोटी गतियों में भ्रमण करना पड़ता है तथा जन्म मरण आदि नानाप्रकारके दुःखोंका भोग करना पड़ता है इसलिये भव्यजीवोंको धन आदिका कहीं हुई रीतिके अनुसारही उपयोग करना चाहिये ॥ २१ ॥ धर्मात्मा पुरुष इस बातका विचार करता है। प्राप्ते नृजन्मनि तपः परमस्तु जन्तोः संसार सागरसमुत्तरणेकसेतुः । माभूद्विभूतिरिह बंधनहेतुरेव देवे गुरौ शामिनि पूजनदानहीनः ॥ २२ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ १२०॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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