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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥१८॥ 1000000000000000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००64 पानन्दिपश्चविंशतिका । दानात्पुनर्ननु चतुविर्धतः करस्था सा लीलयैव कृतपात्रजनानुषङ्गात् ॥ १५॥ अर्थः-जिस परमात्माके ज्ञानसे धर्म अर्थ काम मोक्ष रूप चार पुरुषार्थोकी सिद्धि होती है “ उस परमात्माका ज्ञान सम्यग्दृष्टिको घरमें रहकर कदापि नहीं होसक्ता " परन्तु उनपुरुषार्थों की सिद्धि उत्तम आदि पात्रोंको अहार, औषध, अभय, शास्त्र रूप चारप्रकारके दानके देनेसे पलभरमें हो जाती है इसलिये धर्म अर्थ आदि पुरुषार्थों के अभिलाषी सम्यग्दृष्टियोंको उत्तम आदि पात्रों में अवश्य दान देना चाहिये । नामापि यः स्मरति मोक्षपथस्थसाधोराशु क्षयं व्रजति तदुरितं समस्तम् ॥ यो भुक्तभेषजमठादिकृतोपकारः संसारमुत्तरति सोऽत्र नरो न चित्रम् ॥ १६ ॥ अर्थः-जो मनुष्य मोक्षार्थीसाधुका नाममात्र भी स्मरण करता है उसके समस्तपाप क्षणभरमें नष्ट हो जाते हैं किन्तु जो भोजन, औषधि मठ आदि बनवाकर मुनियोंका उपकार करता है वह संसारसे पार हो जाता है इसमें आश्चर्य ही क्या है अर्थात् ऐसे उपकारीकी तो मोक्ष होनी ही चाहिये ॥ १६ ॥ जिनघरों में तथा जिनगृहस्थोंके दान नहीं वे दोनों ही असार हैं इस बातको आचार्य दिखाते हैं । किं ते गृहाः किमिह ते गृहिणो नु येषामन्तर्मनस्सु मुनयो न हि संचरन्ति ॥ साक्षादथ स्मृलिवशाचरणोदकेन नित्यं पवित्रितधरायशिरःप्रदेशाः ।। १७॥ अर्थः-जिन मुनियों के चरणकमलके जलके स्पर्शसे जिन घरोंकी भूमि पवित्र हो जाती है तथा जिन गृहस्थोंके मस्तक भी पवित्र हो जाते हैं उन उत्तम मुनियोंका जिन घरों में संचार नहीं है तथा जिन गृहस्थों के मनके भीतर भी जिन मुनियोंका प्रवेश नहीं है वे घर तथा गृहस्थ दोनों ही बिना प्रयोजनके हैं इसलिये || BH॥११८॥ ++++000000000000000000000000000000000000000000000 For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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