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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥११७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपञ्चविंशत्तिका । देते हैं इसलिये वास्तविक रीतिसे गृहस्थने ही मोक्षमार्गको धारण किया है ऐसा समझना चाहिये ॥ १२ ॥ गृहस्थाश्रम में व्रतकी अपेक्षा दानही अधिक फलका देने वाला है इस वातको आचार्य दिखाते हैं । नानागृहव्यतिकरार्जितपापपुत्रैः खञ्जीकृतानि गृहिणो न तथा व्रतानि । उच्चैः फलं विदधतीह यथैकदापि प्रीत्यातिशुद्ध मनसाकृतपात्रदानम् ॥ १३ ॥ अर्थः — गृहसंबंधी नानाप्रकारके आरंभोंसे उपार्जन किये हुवे जो पाप उनसे असमर्थ कियहुवे ऐसेव्रत गृहस्थों को कुछभी ऊंचे फलको नहीं देसक्ते जैसा कि प्रीतिपूर्वक तथा शुद्धमनसे उत्तमादि पात्रोंके लिये एक भी दिया हुवा दान उत्तम फलको देता है इसलिये ऊंचे फलके अभिलाषियोंको सदा उत्तमादि पात्रों को दान देना चाहिये ॥ १३ ॥ समय आचार्य और भी दानकी महिमाका वर्णन करते हैं । मूले तनुस्तदनु धावति वर्धमाना यावच्छिवं सरिदिवानिशमासमुद्रम् ॥ लक्ष्मीः सदृष्टिपुरुषस्य यतीन्द्रदानपुण्यात्पुरःसह यशोभिरतीद्धफेनैः ॥ १४ ॥ अर्थः- जिस पहाड़ से नदी निकलती है वहांपर यद्यपि नदीका फांट थोड़ा होता है परन्तु समुद्र पर्यंत जिसप्रकार फेनसहित वह उत्तरोत्तर बढ़ती ही चलीजाती है उसही प्रकार यद्यपि सम्यग्दृष्टि के पहिले लक्ष्मी थोड़ी होती है परंतु मुनीश्वरोंके लिये दियेहुवे दान के प्रभाव से कार्तिकेसाथ मोक्षपर्यन्त वह इन्द्र अहमिन्द्र चक्रवर्त्ती तीर्थंकरादिरूपकर दिन २ बढ़तीही चली जाती है इसलिये सम्यग्दृष्टिको अवश्य दान देना चाहिये ॥ १४ ॥ और भी आचार्य दानकी महिमाका वर्णन करते हैं । प्रायः कुतो गृहगते परमात्मवोधः शुद्धात्मनो भुवि यतः पुरुषार्थसिद्धिः । For Private And Personal ।।११७॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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