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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥११६ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । यः शाकपिण्डमपि भक्तिरसानुविद्धवुद्धिः प्रयच्छति जनो मुनिपुंगवाय । सः स्यादनन्तफलभागथ वीजमुप्तं क्षेत्रे न किं भवति भूरिकृषीवलस्य ॥ १०॥ अर्थः-उसहीप्रकार जो श्रावक भक्तिपूर्वक मुनिको शाकपिण्डका भी आहार देता है वह अनन्त सुखों का भोक्ता होता है जिस प्रकार किसान थोड़ा वीज बोता है उसके वीजकी अपेक्षा धान्य अधिक पैदा होता है इसलिये थोड़ेसे बहुत की इच्छा करनेवाले श्रावकोंको खूब दानदेना चाहिये ।। १०॥ और भी आचार्य दानकी महिमाका वर्णन करते हैं। साक्षान्मनोवचनकायविशुद्धिशुद्धः पात्राय यच्छति जनो ननु भुक्तिमात्रम् । यस्तस्य संसृतिसमुत्तरणकवीजे पुण्ये हरिभवति सोऽपि कृताभिलापः ॥ ११ ॥ अर्थः-जो मनुष्य भलीभांति मनवचनकायको शुद्ध कर उत्तमपात्रके लिये आहार दानदेता है उसमनुष्यके संसारसे पार करने में कारणभूत पुण्यकी नानाप्रकारकी संपत्तिका भोग करनेवाला इन्द्र भी अभिलाषा करता है इसलिये गृहस्थाश्रममें सिवाय दानके दुसरा कोई कल्याण करनेवाला नहीं अतः श्रावकोंको दानकी ओर अवश्य लक्ष्य देना चाहिये ॥ ११ ॥ __ आचार्य दाताकी महिमाका वर्णन करते हैं । मोक्षस्य कारणमभीष्टुतमत्र लोके तद्धार्यते मुनिभिरङ्गवलात्तदन्नात् । तद्दीयते च गृहिणा गुरुभक्तिभाजा तस्माद्धृतो गृहिजनेन विमुक्तिमार्गः ॥ १२॥ अर्थः--इस संसारमें मोक्षका कारण रत्नत्रय है तथा उस रत्नत्रयको शरीरमें शक्ति होनेपर मुनिगण का पालते हैं आर मुनियों के शरीरमें शक्ति अन्नसे होती है तथा मुनियों के लिये उस अन्न को श्रावक भक्ति पूर्वक ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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