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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुंबई के जैन मन्दिर 15 - जिन - प्रतिमा से जिन बन जावे प्रतिष्ठा का महत्त्व * मूर्ति, यह मूर्ति नहीं मूर्तिमान मूर्तिस्वरूप भगवान है। * प्रतिमा, यह प्रतिमा नहीं, साक्षात् देव है, भगवान है। * वीतराग की प्रतिमा पत्थर नहीं, साक्षात् परमात्मा है, प्रतिमा कोई कल्पना नहीं, बल्कि - सनातन सत्य है। * प्रतिमा अपूजनीय नहीं, परम पूजनीय है; अवन्दनीय नहीं, परम वन्दनीय है। * जिस युग में हम जी रहे है, उसमे टेन्शन दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है; आखिर इस टेन्शन को कैसे हटाये ? शान्ति कैसे पायें ? * एक रास्ता है भगवद्भक्ति ! परमात्मा के प्रति अडिग श्रद्धा। * संसार-सागर को पार करने के लिए एवं मुक्तिधाम में पहुंचने के लिए जिन - प्रतिमा अलौकिक एवं अद्वितीय नौका तुल्य है। * जिस प्रकार प्राणविहीन देह निरर्थक एवं त्याज्य होती है, उसी प्रकार से प्राण-प्रतिष्ठा किये बिना जिनप्रतिमा भी केवल प्रतिमा ही होती है। * प्रतिष्ठा हुए बिना प्रतिमा में लोगों की श्रद्धा नहीं होती और वह प्रतिमा पूजनीय नहीं मानी जाती। * भौतिकवाद को तोड़कर भक्तिवाद की स्थापना, वासना को छोड़कर वीतराग की उपासना ___ यही है प्रभु - प्रतिष्ठा का माहात्म्य। * प्रतिष्ठित प्रतिमाजी के दर्शन से सम्यग्दर्शन की स्पर्शना होती है, प्रभु-प्रतिष्ठा से मन की अशान्ति, तन की बीमारी एवं वाणी की कटुता दूर होती है, साथ में जीवन में शान्ति, मृत्यु में समाधि और परलोक में सद्गति प्राप्त होती है। * दुलर्भ ऐसा मनुष्य जीवन पाकर जन्म की सार्थकता के लिए प्रतिष्ठारूप भक्तियोग से अनन्त जीवों ने शाश्वत सुख से मोक्ष प्राप्त किया है। * अन्नत उपकारी श्री जिनेश्वर देव की परम तारक मूर्ति को जो भक्तिपूर्वक स्थापित करते है, करवाते है और अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिष्ठा करने-कराने वालों की अनुमोदना करते है, वे सभी अल्पकाल में शाश्वत सुख प्राप्त करते है। * प्रतिष्ठा के पश्चात् प्रतिमा में प्राणों का संचार होने से वह दिव्य एवं अलौकिक बन जाती है और भक्तगण उस प्रतिमा के समक्ष श्रद्धावनत होते है। * मन्दिर में परमात्मा की प्रतिष्ठा करने के पूर्व हृदय-मन्दिर में भगवान की प्रतिष्ठा करनी अत्यन्त आवश्यक है - पंन्यास जिनोत्तम विजय गणि For Private and Personal Use Only
SR No.020486
Book TitleMumbai Ke Jain Mandir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal M Jain
PublisherGyan Pracharak Mandal
Publication Year1999
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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