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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्द सुणी केसरी तणो, शत्रु को समुदाय । हस्ति तुरंगम पायदल, त्रास लहे कंपाय ।।२२।। सिंह पराक्रम सहन कु, समरथ नहीं तिलमात्र । जीतण की आशा गई, शिथिल थयां सवि गात्र ॥२४।। सम्यग दृष्टि सिंह छे, शत्रु मोहादिक पाठ । प्रष्ट कर्म की वर्गणा, ते सेना नो ठाठ ॥२५॥ दुःखदायक ए सर्वदा, मरण समय सुविशेष । जोर करे प्रति जालमी, शुद्धि न रहे लवलेश ॥२६॥ करमों के अनुसार एम, जाणी समकित वत। कायरता दूरे करे, धीरज धरे अति सत ॥२७॥ समकित दृष्टि जीव कु., सदा सरुप को भास । जड पुद्गल परिचय थकी,न्यारो सदा सुख वास ॥२८॥ निश्चय दृष्टि निहालतां, कर्म कलंक ना कोय । गुण अमत को पिंड ए, परमान दमय होय ॥२६॥ अमूर्तिक चेतन द्रव्य ए, देखे अापकु आप । ज्ञान दशा प्रगट भई, मिट्यो भरम को ताप ॥३०॥ पातम ज्ञान की मगनता, तिनमें होय लयलीन । रंजत नहीं पर द्रव्य में, निज गुणमें होय पान ॥३१॥ विनाशिक पुद्गल दशा, क्षणभंगुर स्वभाव; मैं अविनाशी अनत हूं, शुद्ध सदा थिर भाव ॥३६॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020484
Book TitleMukti Ke Path Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay, Amratlal Modi
PublisherProgressive Printer
Publication Year1974
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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