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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तहा तेसु तेसु समायारेसु सइसमण्णागए सिपा, अमुगेहं, अमुगकुले, अमुगसिस्से, अमुगधम्मट्ठाणट्ठिए। न मे तस्विराहणा, न मे तदारंभो वुड्डो ममेअस्स, एअमित्थ सारं, एअमायभूनं, एनं हिनं, असारमणं सव्वं, विसेसनो अविहिगहणेणं । . ममत्व रहित, अनुकम्पावाला गृहस्थ योग्य प्राचारों का सेवन करते हुए भी उपयोग सहित रहकर मोचता रहे : मैं कौन हूँ, मेरा कुल कौनसा है, मैं किसका शिष्य हूँ? कौन से धर्म स्थान में हूं' (क्या व्रत नियम हैं) आदि पर हर समय विचार करता रहे । उनकी विराधना न हो। धर्म की, व्रतों की वृद्धि होती रहती है या नहीं ? व्रत व उनकी भावना के साथ जैसे श्वेत वस्त्र पर दाग न लगे, वैसी सावधानी रखनी चाहिये । रागद्वेष के जोर से शिथिलता या प्रमाद न पावे, अत: विराधना से बचने का ध्यान रखें। जग में समकित या व्रत के सिवाय कुछ भी सार नहीं है। वही हित है, भवांतर में वही साथ आनेवाली संपत्ति है । अन्य सभी [६१] For Private And Personal Use Only
SR No.020484
Book TitleMukti Ke Path Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay, Amratlal Modi
PublisherProgressive Printer
Publication Year1974
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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