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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मीराबाई कत विदग्ध जन रस अनुगमन अनभव काह न पेख । विद्यापति कह प्रान जुड़ाइत लाखे न मीलल एक ॥ एक ही मक्ति धाग के ये तीन स्वरूप एक दूसरे से कितने विलग और विचित्र हैं । गुसाई तुलसीदास के राम की ललित नर लीला देखकर मुग्ध होने की वस्तु है । वह इतनी मर्यादापूर्ण और महत् है कि उस पर देवता बंद के फूल ही बरसा करते हैं, ऋषि-मुनियों के मुख से धन्य-धन्य की वाणी मुखरित होती रहती है और वेद तथा ब्राह्मण वंदना करते नहीं थकते । बेचारे तुच्छ मानवों के लिये तो दास्य भाव की भक्ति करने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं रह जाता। गुसाई तुलसीदास ने भक्ति और सगुण लीला का अतिशय मर्यादित रूप उपस्थित किया । बात यह थी कि वे बड़े ज्ञानी और पंडित थे, शास्त्र, पुराण, दर्शन सबके पूर्ण ज्ञाता थे, इसीलिए उनके विनय के पदों तथा सगुण लीला के कथा-प्रसंगों में मर्यादा का बहुत अधिक ध्यान रखा गया है । सूरदास की कृष्ण लीला में यद्यपि मर्यादा की इस सीमा तक पहुँचने का प्रयास नहीं है, फिर भी उसमें मर्यादा का भाव अवश्य है और वह उसी सीमा तक है जिससे ललित नर -लीला करने वाले भगवान कृष्ण ईश्वर नहीं बनते, वरन् मानव ही रहते हैं । इसके विपरीत कबीर और विद्यापति की भक्ति में न लीला का भाव है न विनय का; वहाँ तो भगवान् उनका अत्यंत निकट प्रेमी है जिसकी प्रेम की ही मर्यादा है, प्रेम की ही लीला है, प्रेम का ही विनय है । परंतु कबीर और विद्यापति की भक्ति-भावना में इतनी समानता होने पर भी उनकी मनोवृत्ति में बहुत अधिक अंतर है। कबीर का जब अपने प्रेमी से मिलन होता है, तब उस ग्रानंद का वर्णन करते हुए कवि गा उठता है: गगन गरजि बरसै अमी, बादर गहिर गंभीर । चहुँ दिसि दमकै दामिनी, भीजै दास कबीर ॥ यह श्रानंद कुछ अदुभुत सा है जो सहसा समझ में नहीं आता। गंगे के गुड़ के समान ही यह अनिर्वचनीय है। परंतु जब विद्यापति इसी श्रानंद का वर्णन करते हुए गा उठते हैं : For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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