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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यालोचना खंड ६१ अाजु रजनी हम भाग्ये पोहायनु, पेखनु पिय मुख चन्दा । जीवन यौवन सफल करि माननु, दस दिस भो निरद्दा ॥ अाजु हम गेह गेह करि माननु, अाजु मोर देह मेला देहा । श्राजु विही मोर अनुकूल होयल, टूटल सबहु संदेहा ॥ सोइ कोकिल अब लाखहि डाकउ, लाख उदय करु चन्दा । पाँच बान अब लाख बान हनु, मलय पवन बहु मन्दा ।। अब सो न जबहु मोह परिहोयत, तबहु मानव निज देहा । विद्यापति कह अलप भागि नह धनि धनि तु नव नेहा ।। तब उनका यह अानन्द हमारी समझ में आ जाता है, वह निर्वचनीय है; वह ऐसा सुख है जिसमें चिड़िया-रैन-बसेरा के समान कंकड़ पत्थर का छोटा सा घर अपना घर जान पड़ता है और अंत में चिता की अग्नि में जल जाने वाला यह नश्वर शरीर अपना शाश्वत् शरीर जान पड़ता है । यह वही सुख है जैसा कवि 'प्रसाद' ने लिखा है: मिल गये प्रियतम हमारे मिल गये । यह अलस जीवन सफल अब हो गया । कौन कहता है जगत है दुःखमय यह सरस संसार सुख का सिन्धु है, इस हमारे और पिय के मिलन से, स्वर्ग आकर मेदिनी से मिल रहा ।। और यह वही सुख है जिसके सम्बन्ध में जायसी ने लिखा है कि : होतहि दरस परस भा लोना; धरती सरग भवहु सब सोना । कबीर का आनन्द जितना ही अस्पष्ट और रहस्यपूर्ण है, विद्यापति का संयोगसुख उतना ही स्पष्ट और तीन है । इसी प्रकार अपने परम प्रिय के विरह में न्याकुल होकर जब कबीर कह उठते हैं : बिरह-कमंडल कर लिए वैरागी दोउ नैन । माँगत दरस मधूकरी, छके रहें दिन रैन ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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