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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अालोचना खंड ५९ दुरि देखति जसुमति यह लीला, हरख अनन्द बढ़ावत । 'सूर' स्याम के बाल-चरित ये नित देखत मन भावत ॥ दूसरी ओर योग-मार्ग के गहन कानन से चक्कर काटती हुई यह भक्ति-धारा संत कबीर की अटपटी बानी में फुट पड़ती है: पिया मिलन की प्रास रहौं कब लौं वरी । ऊँचे नहिं चढ़ि जाय, मने लजा भरी ॥ पाँव नहीं ठहराइ चढ़ गिर गिर परूँ । फिरि फिरि चढ़ाउँ सम्हारि, चरन आगे धरूँ ॥ अंग-अंग थहराइ तो बहु बिधि डरि रहूँ। करम-कपट मग घेरि तो भ्रम में परि रहूँ॥ बारी निपट अनारि ये तो झीनी गैल है । अटपट चाल तुम्हारि मिलन कस होइ है ॥ छोरो कुमति विकार, सुमति गहि लीजिये । सतगुरु शब्द सम्हारि, चरन चित दीजिये ॥ अन्तर पट दे खोल शब्द उर लावरी । दिल बिच दास कबीर, मिले तोहि को बावरी ॥ और बंगाल प्रांत के शाक्त-धर्म एवं तंत्र-सम्मत पंच मकारों के स्थूल लौकिक जीवन के सम्पर्क में आकर यह भक्ति-धारा समतल मैदान में बहने वाली शैवाल-रंजिता मंदगामिनी सरिता की भांति जयदेव, चंडीदास और विद्यापति के पदों में कितनी सरस और मधुर हो उठी है। इन पदों में लौकिक जीवन की वह मधुर झंकार है, घरेलू स्नेह और प्रणय का वह परिचित वातावरण है जो सहसा दृष्टि को मुग्ध कर देता है। विद्यापति का एक पद देखिये : सखि हे की पुछसि अनुभव मोय । सोइ पिरीत अनुराग बखानहत तिल नूतन होइ ॥ जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेला । सोइ मधुर बोल श्रवनहिं सून लों श्रुति पथ परसन गेला ॥ कत मधु जामिन रभसे गमाअोलों ना बुमलों कैसन केली । लाख लाख जुग हिय हिय रखलों तौउ हिय जुड़न न गेली ॥ .. For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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