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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मीराबाई शाक्त-धर्म का बड़ा प्रचार था। पंच मकारों की साधना का वह उन्मत्त मार्ग बड़ा ही घृणित था । भक्ति-धर्म को उससे भी संघर्ष लेना पड़ा था। चैतन्य महाप्रभु ने बंगाल में भक्ति-धर्म का डंका बजाया। उत्तर भारत में भक्ति-धर्म ने अद्वैतवादी ज्ञान-मार्ग, हठयोग तथा तंत्रइन तीनों मतों के सम्पर्क में आकर तीन भिन्न स्वरूप धारण किये ! गिरिशृंग से उतरने वाली स्रोतस्विनी अपने प्रवाह-पथ में जिस प्रकार भिन्न-भिन्न भू-खंडों के सम्पर्क से भिन्न-भिन्न स्वरूप धारण करती है-पर्वतों से उतरते समय निर्भर के रूप में गिरिप्रांत को मुखरित करती जाती है। घने जंगलों में आँख मिचौनी खेलती हुई वक्राकार माग से चक्कर काटती चलती है और समतल भूमि-खंड में आकर प्रशस्त मार्ग पर धीरे धीरे बहती हुई कमल, सेवार तथा छोटी-बड़ी लहरियों में शोभा पाती है, उसी प्रकार भक्ति की सरस स्रोतस्विनी ने भी तीन भिन्न स्वरूप धारण किये। ज्ञान के उच्च गिरिशृंग के सम्पर्क में आकर इस भक्ति-धारा ने सगुण लीलारूपी निर्भर का रूप धारण किया जिसमें मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान् राम तथा नटनागर श्रीकृष्णचंद्र की सगुण लीला के सरस मधुर गान ने समस्त मध्यदेश को मुखरित कर दिया। एक ओर गुसाई तुलसीदास के भगवान् राम अपनी माया-स्वरूपा सीता से कहते हैं : सुनहु प्रियाव्रत रुचिर सुसीला । मैं कछु करब ललित नर लीला॥ तुम पावक महँ करहु निवासा | जब लौं, करहुँ निसाचर नासा || दूसरी ओर सूरदास के बाल गोपाल बिना किसी से कुछ कहे ही अपनी ललित बाल-लीला दिखा रहे हैं : हरि अपने आगे कछु गावत । तनक तनक चरनन सो नाचत, मनहीं मनहिं रिझावत ।। बाँह उँचाइ काजरी-धौरी गैयन टेरि बुलावत । कबहुँक बाबा नन्द बुलावत, कबहुँक घर में श्रावत || माखन तनक अापने कर लै तनक बदन में नावत । कबहुँ चितै प्रतिविम्ब खम्भ में लवनी लिए खवावत ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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