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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५० मीराँबाई में दोनों में भेद भाव स्थापित हो जाता है। मीराँ दार्शनिक नहीं थीं, परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि अज्ञात रूप से वे इसी द्वैताद्वैत सिद्धांत की मानने वाली थीं। मूल रूप से भगवान और भक्त में अभेद भाव होते हुए भी व्यक्त रूप से दोनों में बहुत भेद है । इस भेद को लौकिक दृष्टि से मीराँ ने रुष और नारी का भेद माना है । यह पुरुष और नारी का सम्बंध लौकिक दृष्टि से स्पष्ट है; परन्तु केवल इतना कहने से काम नहीं चलेगा । मानव समाज में नर और नारी के बीच अनेक सम्बंध हैं | नर-नारी का सम्बंध ही मानव समाज की चिरन्तर समस्या है । अस्तु, 'तुम हो पुरुष हम नारी' मात्र कहने से यह सम्बंध स्पष्ट नहीं होता कुछ और भी कहना आवश्यक हो जाता है । मीराँ भी केवल इतना ही कह कर चुप नहीं रही हैं, उन्होंने भी इस पुरुष और नारी के सम्बंध को अधिक स्पष्ट करते हुए लिखा है : घड़ी एक नहिं आवड़े, तुम दरसन बिन मोय । तुम हो मेरे प्राण जी, जासू जीवन होय ! नींद न आवै धान न भावै, विरह सतावै मोय । घायल सी घूमत फिरूँ री, मेरा दरद न जाणे कोय || तुम ( पुरुष ) मेरे नारी जीवन के प्राण हो, तुम्हारे ( पुरुष के ) दर्शन बिना मुझे ( नारी को ) एक घड़ी भी चैन नहीं मिलता, तुमसे ( पुरुष से ) ही मेरा ( नारी का ) जीवन है । तुम्हारे ( पुरुष के ) बिना मैं (नारी) तुम्हारे विरह में घायल के समान घूमती रहती हूँ । न मुझे नींद आती है, न ध्यान माता है, मेरा दर्द कोई भी नहीं जान सकता । यह 'तुम और मैं' की बड़ी स्पष्ट व्याख्या है। इससे भी स्पष्ट देखनी हो तो देखिए तुम अर्थात् अपने भगवान् की स्पष्टतम व्याख्या करती हुई वे कहती हैं : म्हारो जनम मरन को साथी, थाँने नहिं विसरूं दिन राती । 'तुम देख्याँ चिन कल न पड़त है, जानत मेरी छाती । ऊँची चढ़-चढ़ पंथ निहारू रोय रोय अखियाँ राती ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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