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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अालोचना खंड १४६ गोस्वामी तुलसीदास इसी सम्बंध की चर्चा करते हुए कह उठते हैं : तू दयाल, दीन हौं, तु दानि, हौ भिखारी । हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी । नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मो सो? मो समान भारत नहि, श्रारतिहर तो सो। ब्रह्म तू , हौं जीव, तुही ठाकुर हौ चेरो । तात, मात, गुरु, सखा, तू सब बिधि हितु मेरो॥ संतकवि रैदास भी इसी 'तुम और मैं' के सम्बंध की चर्चा करते हैं : प्रभु जी तुम चंदन मैं पानी । जाकी बास अँग अङ्ग समानी। प्रभु जी तुम दीपक हम बाती । जाकी ज्योति जलै दिन राती । और इसी सम्बंध की चर्चा करते हुए आधुनिक रहस्यवादी कवि निराला भीगा उठते है : तुम तुङ्ग हिमालय शृंग और मैं चंचल-गति सुर-सरिता ॥ मीराँबाई भी उसी 'तुम और मैं' की विवेचना करती हुई गा उठती हैं : तुम बिच हम बिच अन्तर नाही, जैसे सूरज घामा॥ सूर्य और उसके प्रकाश के समान अभेद भाव रहते हुए भी 'तुम' और 'मैं' में भेद भी है और साधारण भेद नहीं बहुत बड़ा भेद है । इसीलिए तो मीराँ एक स्थान पर लिखती हैं:___ जल ते न्यारी कान्हा कभुवों न होऊँगी; तुम हो पुरुष हम नारी। लाज मोहिं आवत भारी। यह ब्रह्म और जीव का एक साथ ही श्रमेद और भेद भाव दार्शनिक दष्टि से निम्बार्क के देतादैत अथवा भेदाभेद सिद्धांत के अनुरूप है। दैताद्वैत सिद्धांत के अनुसार जीव और ब्रह्म में अत और अभेद भाव भी है, साथ ही द्वैत और भेद भाव भी ; जिस प्रकार महासागर और उसकी लहर में अभेद भाव है क्योंकि दोनों ही जल हैं और साथ ही भेद-भाव भी है, क्योंकि महासागर अत्यंत विशाल है और लहर उसी का अत्यंत लघु व्यक्त रूप है। जाग्रत अवस्था में ब्रह्म और जीव दो हैं परन्तु तुरीयावस्था अथवा समाधि For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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