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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रालोचना खंड १५१ यो संसार सकल जग . ठो, झूठा कुलरा न्याती। दोउ कर जोड्याँ अरज करत हूँ, सुण लीज्यो मेरी बाती ।। xxxxxx पल पल तेरा रूप निहारू, निरख निरस्त्र सुख पाती। मीरों के प्रभु गिरधर नागर हरि चरणाँ चित राती ॥ [ मी० पदा० पद सं० १०६ ] और भी मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई। जाके सिर मोर मुगट, मेरो पति सोई । छाँड़ि दई कुल की कानि कहा करिहै कोई संतन ढिंग बैठि बैठि लोक लाज खोई । अर्थात् भगवान मीराँ का सच्चा पति है; वे कुल-कानि, सामाजिक बंधन सब का उल्लंघन कर उसी मोर मुकुट वाले को ही अपने जन्म और मरण का साथी बनाती है और उसी का रूप पल पल देखकर सुख पाती है । इसी प्रकार 'मैं' की ब्याख्या करती हुई ये कहती हैं : हेरी मैं तो दरद दिवाणी मेरा दरद न जाणे कोय । और भी राम मिलण के काज सखी, मेरे प्रारति उर में जागी री ॥टेक। तलफत तलफत कल न परत हैं विरह वाण उर लागीरी । निस दिन पंथ निहारूँ पीव को, पलक न पल भरि लागीरी ।। पीव पीव मैं रहूँ रात दिन, दूजी सुधि बुधि भागी रीं ॥ विरह भवंग मेरो डस्यो है कलेजो,लहरि हलाहल जागी री। मेरी प्रारति मेटि गुसाई, प्राह मिलौ मोहि सागी री॥ मीरौं ब्याकुल अति अकुलानी, पिया की उमंग अति लागी री ॥ [मो० पदा० पद सं० ९१ ] इस प्रकार मीराँ ने अपने भगवान् का और अपना सम्बंध स्पष्टतम शब्दों में प्रकट कर दिया है। वह गिरधर नागर मीरों का प्रियतम पुरुष है, जिससे मिलने के लिए ने अत्यधिक उत्कंठित हैं और मीराँ अपने गिरधर नागर की दासी मीरा नारी हैं जो अपने प्रियतम के विरह में पागल सी घूमती फिरत For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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