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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अालोचना खंड जानकीबर सुन्दर माई। इंद्रनील-मनि-स्याम सुभग अंग अंग मनोजनि बहु छबि बाई । अरन-चरन अँगुली मनोहर नख दुतिवंत कछुक । अरुनाई। कंज दलनि/पर मनहु भौम दस बैठे अचल-सु-सदसि बनाई ।। और इसी परम्परा का पालन करते हुए सूर ने भी भगवान कृष्ण की छबि अंकित की है; परन्तु नारी मीरा ने पुरुष रूप भगवान् कृष्ण के जिस सहजबंकिम सौन्दर्य का चित्रण किया है: बसो मेरे नैनन में नंदलाल । मोहनी मूरत सॉवली सूरत, नैना बने बिसाल । श्रधर सुधारस मुरली राजत,उर बैजन्ती माल । छुद्र घंटिका करि तट सोभित नूपुर सन्द रसाल । मीराँ प्रभु संतन सुखदाई, भगतवछल गोपाल ॥ उसमें जो तन्मयता और सजीवता है वह सूर और तुलसी के अलंकृत और परम्परागत वर्णनों में कहाँ मिल सकता है। __ इस प्रकार मीराँ कभी निर्गुण ब्रह्म की खोज करती है, कभी सगुण ब्रह्म रूप भगवान कृष्ण की 'सॉवली सूरत' पर बलिहारी जाती है; कभी 'निपट उदास रहने वाले योगी के लिए ब्याकुल हो उठती हैं, कभी गणिका,गीध और अमामिल के तारने वाले की दुहाई देती हैं । सारांश यह कि मीरों की भगवान विषयक धारणा बहुत स्पष्ट न थी,जब जैसा प्रभाव-उन पर पड़ा, तब उसी के अनुरूप अपने भगवान की कल्पना कर लिया करती थीं। परंतु उनकी भक्ति भावना अत्यंत स्पष्ट और स्थिर थी। चाहे भगवान का जो भी स्वरूप हो, चाहे वह निगुण हो वा सगुण,योगी हो वा गिरधर नागर, मीरों की भक्ति-भावना सदैव एक सी है, उनकी विरह-वेदना उसी प्रकार तीव्र है; उनकी आत्मोत्सर्ग की भावना उसी प्रकार निश्चल है । भगवान का विषय बुद्धिगम्य है, चिन्तन-प्रधान है, ज्ञान और तर्क से सम्बद्ध है, इसीलिए मीराँ उस विषय में स्पष्ट नहीं हैं, न हो ही सकती हैं | दार्शनिक चिन्तन के इस दुर्गम और जटिल मार्ग में नारी की गति कहाँ ? परन्तु भक्ति For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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