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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मीराबाई भावना का विषय है, हृदय का धर्म है, अतएव इस क्षेत्र में मीराँ अत्यंत बष्ट और स्थिर है। मीरा की भक्ति-मीरों की भक्ति भावना के स्पष्ट दो रूप हैं (१) विनय और (२) विरह-निवेदन ।। विनय के पद संख्या में बहुत ही कम हैं, सम्भवतः सब मिला कर एक दर्जन भी न होंगे जब कि विरह-निवेदन के पद संख्या में बहुत अधिक हैं और पद-रचना में भी अत्यंत उत्कृष्ट कोटि के हैं। इसलिए यह निष्कर्ष निकालना अनुचित न होगा कि विनय के पद मीरों की सच्ची भक्ति-भावना के द्योतक नहीं हैं, किसी विशेष अवसर पर विशेष प्रभाव द्वारा ही वे लिखे गए थे। विनय के इन पदों में भगवान की सर्वशक्तिमत्ता तथा उनकी असीम दया और करुणा की प्रशंसा तो अवश्य मिलती है, परंतु भक्त की ओर से उस दैन्य भाव का अभाव है जो सूर और तुलसी के विनय पदों की विशेषता है । यह सच है कि विनय के इन पदों में मीराँ ने दास्य भाव की ही भक्ति प्रदर्शित की है', परंतु अपनी ओर अपने गिरधर नागर की दृष्टि आकर्षित करने के लिए अपने पातक और दैन्य की दुहाई नहीं दी। जब कि सूर और तुलसी अपने को सब पतितन को नायक' और 'पतितन को टोको' प्रमाणित करने में अपनी सारी कला और बद्धि लगा देते हैं, वहाँ मीरा अपने सहज विश्वास से केवल इतना ही कहती हैं : तुम सुणौ दयाल म्हारी अरजी ॥ भवसागर में बही जात हूँ, काढ़ो तो थारी मरजी। यौ संसार सगो नहिं कोई साँचा सगा रधुबर जी ।। भज मन चरण कमल अविनामी जेताइ दीसे धरणि गगन बिच तेताइ सब उठि जासी। xxx xxx अर जो कर अबला कर जोरे, स्याम तुम्हारी दासी।। मीरां के प्रभु गिरधर नागर काटो जम की फांसी। [ नीरांबाई की शब्दा० १० १-२ ] For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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