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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १२० www.kobatirth.org मीराँबाई Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माधव जू मो सम मंद न कोऊ । जद्यपि मीन पतंग हीनमति मोहिं नहिं पूजहिं ओक । X X मेरे व सारद अनेक जुग गनत पार नहिं पावै । तुलसीदास पतितपावन प्रभु यह भरोस जिय श्रावै :: f तब अपनी दीनता, पाप और असहाय श्रवस्था की दुहाई देकर गरीबनिवाज और भक्तवत्सल भगवान् से दया और करुणा की भिक्षा माँगना ही उनका एकमात्र उद्देश्य है । सुरदास ने अपने विनय के पदों में अपने को अत्यंत तुच्छ, हीन और घृणित प्राणी के रूप में चित्रित किया है : मोसम कौन कुटिल खल कामी । तुम सौं कहा छिपी करुनामय, सबके अंतरजामी ॥ जो तन दियो ताहि बिसरायो, ऐसो नमकहरामी । भरि भरि द्रोह विषैौं धावत, जैसे सूकर ग्रामी ॥ X X पापी परम अधम अपराधी, सब पतितन में नामी । सूरदास प्रभु अधम उधारन, सुनिए श्रीपति स्वामी ॥ परन्तु यह दीन भाव भगवान के कृपापात्र एक भक्त को शोभा नहीं देता । भगवान को अभिमान से द्वेष है, श्रात्माभिमान से नहीं । मीराँ ने अभिमान का त्याग अवश्य कर दिया था, क्योंकि अभिमान और अहंकार के रहते श्रात्मसमर्पण सम्भव ही नहीं है; परन्तु श्रात्माभिमान का त्याग नहीं किया । इसीलिए उन्होंने अपने को अत्यंत हीन और तुच्छ नहीं समझा। उनकी भक्ति भावना में दीनता और असमर्थता का लेश भी नहीं है । वह भगवान सर्वशक्तिमान है, श्रेष्ठ है, सब चराचर का स्वामी है इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता, परन्तु भक्त का भी एक स्वतंत्र अस्तित्व है, उसकी भी एक मर्यादा है । भक्त भगवान् पर अवलम्बित श्रवश्य है, परन्तु वह अवलम्बन उसी प्रकार का है जैसे लता तरु पर अवलम्बित है । मीरों की भक्ति भावना इसी For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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