SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अालोचना खंड १२१ प्रकार की थी। आत्माभिमानिनी मीराँ अपने हरि की उपेक्षा नहीं सह सकतीं। वे कह उठती है: माई म्हारी हरि न बूझी बात। पिंड मा प्राण पापी निकस क्यूँ नहिं जात ॥ और अपने अविचल प्रेम तथा भक्ति के विपरीत उन्हें जब भगवान के दर्शन नहीं मिलते तब उपालम्भ-स्वरूप वे कह उठती हैं : जाश्री हरि निरमोहड़ा रे जाणी थारी प्रीत । लगन लगी तब और बात ही अब कछु अवली रीत ।। मीराँ ने भत्ति की, प्रेम किया, प्रेम में आत्मसमर्पण भी कर दिया, परन्तु अपने को तुच्छ और हीन नहीं बनाया। __ 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में लिखा है कि जब सूरदास पहले पहल महाप्रभु वल्लभाचार्य की सेवा में उपस्थित हुए और महाप्रभु की आज्ञा से 'हौं हरि सब पतितन को नायक' तथा 'प्रभु मैं सब पतितन को टीको दो पद सम्पूर्ण करके सुनाए तब महाप्रभु ने कहा था 'जो सूर है के ऐसो घिधियात काहे को है।' यह बात सूरदास के हृदय में ऐसी चुभ गई कि उसी दिन से उन्होंने 'घिधियाना' छोड़ दिया। भक्त का काम घिधियाना नहीं है, भक्ति करना है, और मीरा ने भक्ति की थी। इसलिए उन्होंने अपने को दीन, हीन और छोटा प्रमाणित करने का प्रयत्न नहीं किया, अपनी व्यथा और सहनशीलता के बल पर अपने हृदय-धन को प्राप्त करने की उनकी चेष्टा थी उनकी भक्ति भावना में एक उल्लास था, वह उल्लास जो सीधे हृदय से निकला था, जिस पर बुद्धि का कोई नियंत्रण नहीं, लोक-लज्जा का कोई भय नहीं; वह उल्लास जो स्वच्छंद होकर भी पवित्र था। वह भक्ति का उल्लास ही था, जिसमें मीराँ गा उठती हैं :--- पग घुघुरू बांध मीराँ नाची रे । मैं तो अपने नारायण की, आपहि हो गइ दासी है। लोग कहें मीराँ भई बावरी, न्यात कहें कुल नासी रे ॥ . For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy