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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ लिपि - विकास ६६६६६ की संख्या ६०००० + १००० + ६००+६०+ ६ के चिन्ह लिख कर लिखी जाती थी । अक्षरांको के विषय में कुछ समय पूर्व प्रिन्सेप आर्यभट्ट आदि विद्वानों का यह मत था कि उनकी उत्पत्ति उनके सूचक शब्दों के प्रथम अक्षरों से हुई है जैसे फ़ा, ( सेह) से, हि० पंच से ५, अं० four से 4, इत्यादि परन्तु बाद में चूहलर, भगवानलाल, ओझा आदि विद्वानों ने अक्षरांकों में कोई नियम अथवा क्रम न पाकर उक्त मत को अस्वीकृत कर दिया; परंतु इसके यह मानी नहीं हैं कि अक्षरांक ही न थे । शब्दों के प्रथम अक्षर अंकों के सूचक भले ही न हों, परंतु अक्षरांकों का होना निर्विवाद है । इतना ही नहीं, प्रत्युत अंक-सूचक अक्षर लिपि के अनेक भेद-उपभेद तक थे । प्राचीन ग्रंथों से पता चलता है कि इसकी दी शैलियां थीं जो क्रमशः 'गीत-कल्प भाष्य' आदि प्राचीन जैन ग्रंथों तथा आर्यभट्ट के ज्योतिष ग्रंथों में पाई जाती हैं । अक्षरांक लिपि में एक एक अंक के लिए कई-कई वर्ण आते थे जैसे क प य तीनों १ के द्योतक थे । कुछ ऐसे उदाहरण भी पाए जाते हैं जिनमें ग्रंथांतर होने पर एक ही स्वरांक अथवा व्यंजनांक भिन्न-भिन्न संख्याओं का द्योतक हैं जैसे आर्यभट्ट के ज्योतिष ग्रन्थों में क तथा न क्रमशः १ तथा ० के द्योतक हैं, परन्तु अक्षर चिंतामणि में ४ तथा ५ के द्योतक हैं। इसके अतिरिक्त अंक सूचक शब्द - लिपि भी प्रचलित थी। इसमें भी दो प्रकार के अक थे, शब्दांक तथा नामांक शब्दांक लिपि में कोई पदार्थ अथवा व्यक्ति अपनी संख्या का ही सूचक हो जाता था जैसे मुनि संख्या में ७ हैं, अत: 'मुनि' ७ का द्योतक था जैसे 'तव प्रभु मुनि शर मारि गिरावा'; इसी प्रकार हस्त, कर्ण, चक्षु, बाहु, इत्यादि मानव शरीरावयव संख्या में २ -२ होने के कारण २ के, नख संख्या में २० तथा दशन ३२ होने के कारण क्रमशः २० तथा ३२ के, भुवन विधु, सूर्य, मह, For Private And Personal Use Only
SR No.020455
Book TitleLipi Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Mehrotra
PublisherSahitya Ratna Bhandar
Publication Year2002
Total Pages85
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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