SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 261 रघुवंश पुरोपकंठोपवनाश्रयाणां कलापिनामुद्धतनृत्यहेतौ। 6/9 नगर के आसपास की अमराइयों में रहने वाले मोर उसे बादल का गरजना समझकर नाच उठते हैं। कलापिनां प्रावृषि पश्य नृत्यं कान्तासु गोवर्धन कंदरासु। 6/51 गोवर्धन पर्वत की सुहावनी गुफाओं में बैठकर मोरों का नाच देखना। 2. बी/बर्हिण :-[बर्ह + इनच्] मोर। स पल्वलोत्तीर्ण वराह यूथान्यावास वृक्षोन्मुखबर्हिणानि। 2/17 राजा दिलीप देखते हुए चले जा रहे थे, कि कहीं तो छोटे-छोटे तालों में से सुअरों के झुंड निकल-निकल कर चले जा रहे हैं, कहीं मोर अपने बसेरों (वृक्षों) की ओर उड़े जा रहे हैं। प्राप्ता दवोल्काहतशेषबहः क्रीडा मयूरा वनवर्हिणत्वम्। 16/14 अब वे उन जंगली मोरों के समान लगते हैं, जिनकी पूछे वन की आग से जल गई हैं। तीरस्थलीबर्हि भिरुत्कलापैः प्रस्निग्धके कैरभिनन्द्यमानम्। 16/64 तट पर बैठे हुए मोर अपनी पूंछ उठाकर और बोलकर उनका अभिनन्दन कर रहे 3. मयूर :-[मी + ऊरन्] मोर। जहार चान्येन मयूरपत्रिणा शरेण शक्रस्य महाशनिध्वजम्। 3/56 फिर रघु ने मोर के पंख वाले दूसरे बाण से इन्द्र की वज्र जैसी ध्वजा को काट डाला। भूयिष्ठमासीदुपमेय कान्तिर्मयूर पृष्ठाश्रयिणा गुहेन । 6/4 उस पर बैठे हुए वे ऐसे सुन्दर लग रहे थे मानो कार्तिकेय अपने मोर पर चढ़े बैठे हों। स्थली नवाम्भः पृषता भिवृष्टा मयूरकेकाभिरिवाभ्रवृन्दम्। 7/69 पर जैसे नये बादलों की बूंदों से भीगी हुई पृथ्वी मोर के शब्दों से मेघों का स्वागत करती है। अपि तुरगसमीपादुत्पतन्तं मयूरं न स रुचिर कलापं बाणलक्ष्मीचकार। 9/67 For Private And Personal Use Only
SR No.020426
Book TitleKalidas Paryay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTribhuvannath Shukl
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2008
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy