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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रघुवंश शत्रुओं को उखाड़कर उन्हें फिर जमाते समय यह नियम तोड़ दिया। अनित्याः शत्रवो बाह्या विप्रकृष्टाश्च ते यतः । 17/45 यह सोचकर कि बाहरी शत्रु तो सदा होते नहीं और होते हैं, भी तो दूर रहते हैं। उत्खात शत्रु वसुधोपतस्थे रत्नोपहारैरुदितैः खनिभ्यः । 18 / 22 शत्रु विनाशक पुत्र ने सारी पृथ्वी से शत्रुओं को उखाड़ फेंका और रत्न, खनिज उपहार में प्राप्त किया। 141 8. सपत्न : - [ सह एकार्थे पतति पत्+न, सहस्य सः ] शत्रु, विरोधी, प्रतिद्वन्द्वी । जनपदे न गदः पदमादधावभिभवः कुत एव सपत्नजः । 9/4 रोग भी उनके राज्य की सीमा में पैर न रख सके, फिर शत्रुओं के आक्रमण की तो संभावना ही कहाँ थी। न च सपत्न जनेष्वपि तेन वागपरुषा परुषाक्षरमीरिता । 9/8 क्रोधित होने की तो बात ही दूर है, उन्होंने अपने शत्रुओं को भी कोई कठोर शब्द नहीं कहा। ध धनु 1. इष्वास : - [ इष् + उ + आस: ] धनुष । राममिष्वासनदर्शनोत्सुकं मैथिलाय कथयांबभूव सः । 11/37 तब ठीक समझकर विश्वामित्र जी ने जनकजी से कहा कि राम भी धनुष देखना चाहते हैं । 2. कार्मुक - [कर्मन् + उकञ ] धनुष । प्रजार्थसाधने तौ हि पर्यायोद्यतकार्मुकौ । 4/16 ये दोनों धनुष ही बारी-बारी से प्रजा की भलाई किया करते हैं । शमिताधिरधिज्यकार्मुकः कृतवान् प्रतिशासनं जगत् । 8/27 जब उन्हें धीरज हुआ और उनका शोक कम हुआ, तब वे धनुष बाण लेकर सारे संसार पर एक छत्र राज्य करने लगे। For Private And Personal Use Only स्थाणुदग्धवपुषस्तपोवनं प्राप्त दाशरथि रात्तकार्मुकः । 11/13 जिस तपोवन में शिवजी ने कामदेव को भस्म किया था, वहाँ जब सुंदर शरीर वाले राम, धनुष उठाए हुए पहुँचे ।
SR No.020426
Book TitleKalidas Paryay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTribhuvannath Shukl
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2008
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size18 MB
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