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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४५ ] काया में अनन्त उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी तक पैदा होते तथा मरते हैं । प्र० - उत्सर्पिणी किसको कहते हैं ? उ०- - दस क्रोड़ा क्रोड़ी सागरोपम को एक उत्सर्पिणी तथा उतने की ही एक अवसर्पिणी होती है । " द्वीन्द्रिय आदि जीवों की स्वकाय स्थिति । " संखिज्जसमा विगला, सत्तट्ट भवा पणिदि- तिरि-मणुया । उववज्जति सकाए, नारय देवा अ नो चेव ॥४१॥ (विगला) विकलेन्द्रिय जीव (संखिजसमा ) संख्यात वर्षों तक (सकाए) अपनी काया में (उववज्जंति) पैदा होते हैं, (पणिदि- तिरि-मणुया) पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य (सत्तट्ठ भवा) सात-आठ भव तक, लेकिन ( नारय देवा) नारक और देव (नो चेत्र) नहीं ॥४१॥ भावार्थ - - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव, स्वकाया में संख्यात वर्षों तक पैदा होते तथा मरते हैं; पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च तथा मनुष्य लगातार सात तथा आठ भव करते हैं अर्थात् मनुष्य, लगातार सात-आठ वार, मनुष्य शरीर धारण कर For Private And Personal Use Only
SR No.020410
Book TitleJivvichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Vrajlal Pandit
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1850
Total Pages58
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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