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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४४ (एवं) इस प्रकार (ोगाहणाउयाण) अवगाहना-शरीर और श्रायु का मान (संखेवनो) संक्षेप से (समक्खायं) कहा गया (जे पुण इत्थ) यहाँ जो बातें (विसेसा) विशेष हैं, (विसेस सुत्ताउ) विशेष सूत्रों से (ते) उनको (नेया) जानना ॥३६॥ __ भावार्थ--देह-मान तथा आयु-मान के विषय में विशेष बातें जानना हों, तो "संग्रहणी', "प्रज्ञा. पना" आदि सूत्रों से जानना चाहिये । _"अब स्वकायस्थिति-द्वार कहते हैं।" एगिदिया य सव्वे, असंख उस्सप्पिणी सकायंमि उववजति चयंत अ, अणंतकाया अणंताओ॥४० ___ (सव्वे) सब (एगिंदिया) एकेन्द्रिय जीव (असंख उस्सप्पिणी) असंख्य उत्सर्पिणी तथा श्रवसर्पिणी तक (सकायंमि) अपनी काया में (उववजति) उत्पन्न होते हैं (अ) और (चयंति) मरते हैं; (अणंतकाया) अनन्तकाय जीव (अणंताश्रो) अनन्त उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिण तक ॥४०॥ ___ भावार्थ---पृथ्वी, आप, तेज, वायु और वनस्पति काय के जीव, उसी पृथ्वी श्रादि की अपनी काया में; असंख्य उत्सर्पिणी-प्रवसर्पिण तक पैदा होते तथा मरते हैं: अनन्तकाय के जीव तो उसी अपनी For Private And Personal Use Only
SR No.020410
Book TitleJivvichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Vrajlal Pandit
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1850
Total Pages58
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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