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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org [ ४६ ] सकता है, इस प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च भी लेकिन देवता तथा नारक जीव मर कर फिर तुरन्त अपनी योनि में नहीं पैदा होते अर्थात् देव मर कर फिर तुरन्त देवयोनि में नहीं पैदा हो सकता। इस प्रकार नारक जीव मरकर तुरन्त नरक में नहीं पैदा होता । हाँ, एक दो जन्म दूसरी गतियों में बिता कर फिर देव या नरक-योनि में पैदा हो सकते हैं। इसी तरह देव मरकर तुरन्त नरक-योनि में नहीं जाता और नारक जीव मरकर तुरंत देव योनि में नहीं पैदा हो सकता । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "अब प्राण-द्वार कहते हैं ।" दसहा जियाण पाणा, इंदि - उसासाउ - जोगबलरूवा । एदिए चउरो, विगले छ सत्त अद्वेव ॥ ४२ ॥ (जियाण) जीवों को (दसहा) दस प्रकार के (पाणा) प्राण होते हैं - (इंदि - उसासाउ - जोगबलख्वा) इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, आयु और योगबल रूप, (एगिंदिएस) एकेन्द्रियों को (चउरो) चार प्राण हैं, (विगलेसु) विक लेन्द्रियों को (छ सत्त भट्ठेब) छ, सात और चाठ ||४२|| For Private And Personal Use Only
SR No.020410
Book TitleJivvichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Vrajlal Pandit
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1850
Total Pages58
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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