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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ये वात जब संघकों मालुमभई तब बहुतमहिमाकरनैलगे, तथा एकदा श्रीगुरूमहाराज प्रवलप्रवेशउच्छव करके मुलतान नगरमेंगए, तब पत्तनमेंवसनेवाला, परपक्षीय अंबड नामें श्रावक खरतरगच्छकीउन्नतिकों नहिं सहताथका बोलाकि इस नगरमें इस आडंबरसें आप आएहो, परंतु अणहिल्लपत्तनमें इसतरेसें आवोगे जबमें जानोंगा, यह वातसुनके गुरुमहाराजबोले कि हमतो इसीप्रकारकरके आवेगें. परन्तु तें तैललवणादिचीज खांधेरखके सन्मुखमिलेगा, पीछे जब गुरुमहाराज कितनें दिन वाद अणहिल्लपुरपत्तनगए, तबअंबडश्रावकदैववसमें निर्धन भया मुलताननगरसे भागके पत्तनजाके तेललवणादिव्यापार करके आजीवकाकरनेलगा, उहां गुरूकेप्रवेशउत्सवसमय सन्मुख मिला गुरुमहाराजनें ओलख के बतलाया, तव गुरू ऊपर अप्रीतिधारनकरताथका कपटकरकेखरतरश्रावक होगया, एकदा श्रीगुरुमहाराजकों विषमिश्रितशाकरकाजल वहराया तब श्रीगुरूमहाराजने विषप्रयोग जानके राय भणसालीगोत्रीय आभूनामें मुख्यश्रावकातें यह स्वरूपकहा तब आभूनामें श्रावक घडीभरमें जोजनजावे ऐसा ऊंठ ऊपर नोंकरकों चढाके पाल्हणपूरसें विषअपहारिणीजडी या मुद्रिका मंगवाके निर्विषकीए, तब बोअंबड लोकमें निंदीजताथका मरके व्यंतरभया, व्यन्तरहोके फेर श्रावकोंमें उपद्रव करने लगा, तब गुरुमहाराज विद्याबलसें सर्व उपद्रव दूर किया, और व्यन्तरभी भागके अपने स्थानक गया, तथा फेर एकदा विक्रमपुरमें मरीका उपद्रवप्रगट भया तब गुरुमहाराजने For Private And Personal Use Only
SR No.020407
Book TitleJinduttasuri Charitram Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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