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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૩૨૨ ४-आदर्शजीवनम "मुनि-सम्मेलनका जिकर लिखते हुए हमारा व्याख्यान लिखा है सो स्वेच्छानुसार और मनस्वी होनेसे प्रमाणसे बाधित स्वयं सिद्ध है. कारण कि खास मतलबके मुद्दे उड़ा दिये और काल्पनिक जाल डभोइमें बनाइ गइ स्वयं बनाकर नाम हिरालाल शर्मेका रक्खा गया. क्या एसी बातोंको परिचयी मनुष्य सत्य मान सकता है ? कि अमृतसरके मंदिरके पूजारी हिरालालजीने वह कीताब बनाई ? कदापि नही. वह किताब तुमारे नामसे खबर दिये शिवाय पूर्व देशमें भेजी गइ, इस बातका जब हमको पत्ता लगा, तब उसकी अप्रमाणिकता जाहिर कर दी गई. ५-आदर्श जीवनमें पाटणकी आचार्य पदवीके विषयमें भी मन घडंत कल्पनाएं लिखी है, जैसेकी उसको आचार्य पदवी मिलती थी मगर ली नहीं और उदारता दिखलाई इत्यादि अनेक बाते जुठी लिखी गइ है. एसी एसी अनेक जुट्ठी बातोंसे भरा हुआ आदर्शजीवन नामका पुस्तक किसीको सत्यमानने लायक नहीं है. ६-मुनिश्री वल्लभविजयजीने शिवजी और लालनके पक्षम होकर शासन विरुद्ध प्रणालिका अंगीकार कीया, इतनाही गुनाह मत समझो, मगर पंजाबले स्वर्गस्थ गुरु महाराजाने ढुंढकोंको मूर्तिपूजक जैन बनाकर अनेक प्रभु मूर्तिए गुजरातसे भेजवाई गई और उसके साथ रेशमके चंदोए पुंठीएं भैजवाये गये थे. पूर्वाचार्य कथित वस्तु व केशरसे बरखिलाफ होकर उन वस्तुओका बहिष्कार करवाया इससे साफ जाहिर है कि शासनशैली प्रभुवचन ओर प्रातःस्मरणीय स्वर्गस्थ परम गुरुदेव उन सबको भूला कर श्रद्धाको भी तिलांजली दी गई. एसे आदमीसे एम जुदाइ कर लेवे उसीमें धर्म है यह मेरा दृढ निश्चय है, वो कभी भी फिर नही सकता. जब तक वह अपनी श्रद्धाको नही सुधारे, वहां तक मैं किसी तरहसे उसे अपने समुदायमें नही मिला सकता. धर्मसाधनमें विशेष उद्यम रखना. धर्मही जगतमें सार है. शास्त्रानुसार प्रवृत्ति रखना वोही धर्मका मर्म है. उसे पाकर जीवनको सफल करो. सबको धर्मलाभ For Private and Personal Use Only
SR No.020396
Book TitleJain Prajamat Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAll India Young Mans Jain Society Sammelan
PublisherAll India Young Mans Jain Society Sammelan
Publication Year1988
Total Pages434
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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