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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૩૨૧ श्री नि. ८० गु-भु-नं. ३२३ ८९ नि. ७८ ना साढे २न्नु उरेल . हा ता. 3-2-3१ बुहारी भा. शु. ६ पूज्यपाद जैनाचार्य श्रीमद् विजयकमलसूरीश्वरजी महाराजजीकी तरफसे तत्र श्री अमदावाद मध्ये देवगुरु भक्तिकारक सुनावक शेठ मोहनलाल लल्लुभाइ, शेठ गिरधरलाल पुरुषोत्तमदास, शेठ प्रेमचंद हठीसंग, मोहनलाल पोपटलाल वकील, शेठ गिरधरलाल छोटालाल तथा शाह चीमनलाल कालीदास योग्य धर्मलाभके साथ मालुम हो कि पत्र तुमारा मिला. तुम जिन बातोंका खुलासा मांगते हो उन बातोंसे जनसमूह भली प्रकारसे वाकिफ है, फिर भी तुम्हारी जिज्ञासा हमारेसे खास खूलासा मिलानेकी हुर है, तो उसका खुलासा नीचे मुजब समझना. १ - लालन और शिवजी जैसे धर्मविरुद्ध कार्य करने वालोंके पक्ष में खडे होजा तेसे मुनि श्री वल्लभविजयजीको हमने हमारे सबसे दूर किया है. मध्यस्थ लोग ईस बातको भली प्रकारसे जानते है. रागी -दृष्टि रागी चाहे वैसा लिखे या बोले वो प्रमाण नहिं हो सकता. २ - श्री वल्लभविजयजीको पृथक किये बाद अबतक हमने उसको मिला भी नही है. इसीसे तुम समझ सकते हो कि वह हमारी आज्ञामे नही है. ३ - गुजरानवाला (पंजाब) में सनातनीयोंके साथ शास्त्रार्थ में विजय तो श्री वल्लभविजयजीके आनेसे प्रथम ही हो गया था जिस बकत श्री वल्लभविजयजीने लाहोर भी नही छोडा था और वहां (गुजरानवाले) फैसला हो गया था, इसलिये आदर्शजीवन और पेस्तरकी छपी हुई किताबो में मुनि वल्लभविजयजी द्वारा विजय प्राप्त हुआ था, एसे लिखा गया है सो साफ गलत है. ४१. For Private and Personal Use Only
SR No.020396
Book TitleJain Prajamat Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAll India Young Mans Jain Society Sammelan
PublisherAll India Young Mans Jain Society Sammelan
Publication Year1988
Total Pages434
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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