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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १९ ) बाप बेटे, राज्य तकजो चढगए । बरबाद पैसे सब हुवे, तुम छोड़दो कुसम्पको || संतोंका० || १ || राज्य रावन का गया, पंचों कि गई पंचायती | सानु कि गई मानता, तुम छोडदो कुसम्पको || संतोंका ० ॥ २ ॥ केई तो खुद मरगए, और केई को मरवा दिये । केई गए परमुल्क में, तुम छोडदो कुसम्पको || संतोंका ||३|| केई की इज्जतगई, केई धर्म में हानि करी | भरम घरका खोदिया, तुम छोडदो कुसम्पको० || ४ || मेरे गुरु नन्दलालजी का, येही नित्य उपदेश है । सम्पनें सुख है सदा, तुम छोडदो कुसम्पको || संताका० ॥ ५ ॥ सम्पूर्णम्. गजल नं २७ ( सत्बोध० ) तर्ज :- पेलु में मेरे यार है | यह० ॥ जीया मानले मुनिराज, सच्ची कहत है अरे । ले मुक्तिको सामान, अब ढिल क्यों करे ॥ ढेर ॥ यह मात तात कुटुम्बभ्रात, सेतु नेह करे । न तुमको तारनहार, क्यों इनकीजाल में परे || जीयामानले ० ||१|| बनजाउं मैं धनवान्, एसी कल्पना करे । न भाग बिना पावे, नाहक डोलतो फिरे || जीयामानले ० || २ || है थोडिसी जिन्दगानी, तू न पापसे डरे । विन पाल्यां धर्म नियम, कैसे आतमा तरे ॥ जीयामानले० || ३ || मेरेगरु नन्दलालजी हैं संतों में सिरे। संसार सागर घोर, आपतारे और तिरे । जीयामानले ० ॥ ४ ॥ सम्पूर्णम्. For Private and Personal Use Only
SR No.020389
Book TitleJain Gyan Gajal Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandji Maharaj
PublisherFulchand Dhanraj Picholiya
Publication Year1925
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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