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(१८)
राज मती, जैसे रहै दृढ़ धर्ममें । पर पूरूष को वांछे नहीं, पति वत्ता वोही नार है । पतिका ० ॥ ३ ॥ रोस में पात कुच्छ कहै, नहीं सामने बोले कभी । ज्युं त्युं दिल को खुश करे, पति व्रत्ता वोही नार है । पतिका ॥ ४ ॥ मेरे गुरू नन्दलालजी का, येही नित्य उपदेश है । दासी बन रहै चरण की, पति वत्ता वोही नार है । पतिका ॥ ५ ॥ संपूर्णम्. गजल नं० २५ (नेक नसिहत ) तजे:---पूर्ववत् ॥
देखकर पर सम्पति, क्यों ? ईर्षा मन में करे । जैसा करे वैसा भरे, क्यों ? ईर्षा मनमें करे ॥ टेर । लक्ष्मी भरपुर फिर, व्यापार में दुगने हुए | अपने२ पुन्य है, क्यो ? ईर्षा करता है तू ।। देखकर ॥ १ ॥ पुत्र पोतादि मनोहर, बहुतहि परिवार है । मोजां करे रंग महल में, क्यों? ईषा करता है तू ॥ देखकर० ॥२॥ जात या पर जात में, पंचायत और सरकार में । पूछ जिनकी होरही, क्यों ? ईर्षा मनमें कर ॥ देखकर ॥ ३ ॥ दयावंत दानेश्वरी, उपदेशदाता धर्मका । महिमा सुणी गुणवानकी, क्यों ? ईपी मनमें कर ।। देखकर० ॥४॥ मेरेगुरु नन्दलालजी का, येही नित्य उपदेश है। द्वेष बुद्धि छोडदे, क्यों ईर्ष मनमें करे || देखकर० ॥ ५ ॥ सम्पूर्णम्.
गजल नं. २६ ( सम्पविषयपर ) तर्ज पूर्ववत.
संतोंका कहना मानके, तुम छोडदो कुसम्पको । प्रेमसे मिलजुलरहो, तुम छोडदो कुसम्पको । टेर ॥ भाई २ या
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