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गजल नं० २३ ( श्रावक गुण वरणन ) तर्ज पूर्ववत
श्रमणो पासक के सदा, गुण एसे होना चाहिये । अनुराग रत्ता धर्म में, गुण एसे होना चाहिये ।। टेर । आवश्यक करके सुबे, गुरु देव का दर्शन करे । वादमें शास्त्र सुने, गुण एसे होना चाहिये ।। श्रमणो० ॥ १ ॥ गुरु देव आवे द्वार पर, तब उठ कर आदर करे । दान दे निज हाथ से, गुण एले होना चाहिये ॥ श्रमणो० ॥ २ ॥ हितकारी चारी संघ के, समभाव सम्पत विपंत में, । गुणपात्र की स्तुति करे, गुण एसे होना चाहिये ॥ श्रमणो ।। ३ ॥ धर्म से डिगते हुए को, साज देकर स्थिर करे । उदास रहै संसार से, गुग ऐसे होना चाहिये । श्रमणे ।। ॥ ४ ।। मेरे गुरू नन्दलालजी का ! येही नित्य उपदेश है। न्याईहो निस्कपट हो, गुण ऐसे होना चाहिये ॥श्रमणो ॥ ॥ ५ ॥ संपूर्णम्, गजल नं. २४ ( पतितास्त्री गुण वरणन.)
॥ तर्जः-पूर्व वत् ।। पतिका हुकम पालन करे, पतिव्रत्ता वोही नार है। सख में सुखि दुःखमें दुःखि, पतिव्रत्ता वोही नारहै । टेर ॥ कुटम्ब को सुख दायनी, सु सम्प से मिलजुल रहै । सुमनी सु भाषिनी, पतिव्रत्ता वोही नार है ।। पतिका० ॥ १ ॥ विप्त में अनुकुल रहै, चित अथिर होता स्थिर करे । उपदेश दाता धर्म की, पतिव्रत्ता वोही नार है ।। पतिका ॥२॥ सीता सती
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