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( १४ )
वोही शिष्य सुशिष्य है | आज्ञा० ॥ २ ॥ लेनमे या देन में, या खानमें अरुपानमें । कार्य सब करे पूछके, ज्यो वोही शिष्य सुशिष्य है || आज्ञा ० || ३ || ज्यो २ क्रिया दिनरातकी है, वही क्रिया करता रहै | चारित्र में मानें मजा, ज्यो वोही शिष्य सुशिष्य है || आज्ञा० || ४ || मेरे गुरु नन्दलालजी का, येही नित्य उपदेश है। मुनि डाव जीते मोक्षका, ज्यो वोही शिष्य सुशिष्य है || आज्ञा ० || ५ || सम्पूर्णम्.
गजल नं १९ ( ऋपण के गुण वर्णन ) तर्ज पूर्ववत.
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मुंजी अपने हाथसे, नहीं जीते जी कामे दान दे । रात दिन जोडे जमा, नहीं जीते जी कभि दानदे. || टेर० || पुत्रादि को दान देते, देखले मूंजी कभी । तो | खुद करे एकासना, नहीं जीते जी कभी दान दे० ॥ मूंजी० ॥ १ ॥ चाहे कोई कुच्छभी दे, उस्का फिकर मूंजी करे | जहां तक बने कर दे मना, नहीं जीते जी कभी दान दे || मूंजी ० ॥ २ ॥ दीन दुःखि कोइ द्वार पे, कोई स्वाल डाले आनकर । करुणा का जिस्के काम क्या, नहीं जीतेजी कभी दानदे० ॥ मूजी० || ३ || बद खाना बद पहनना, चाहे को भी त्योहार हो । मायाका मजदूर वो, नहीं जीतेजी कभी दानदे० ॥ मूंजी ॥ ४ ॥ मेरेगुरु नन्दलालजी का, येही नित्य उपदेश है। मूंजी धन घर जायगा, नहीं जीतेजी कभी दानदे० || मूंजी ॥ ५ ॥ सम्पूर्णम्.
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